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१८, वर्ष ४५. कि०१
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हाथीगुफा शिलालेख से यह तथ्य प्रकट है कि मगध के आदि जैनधर्म के प्रतीकों से युक्त सिक्के भी प्राप्त हुए हैं। प्रतापी राजा नन्द (महापद्मनन्द) ने कलिंग पर विजय २५ वर्ष राज्य करने के बाद अपने पुत्र बिन्दुमार को प्राप्त की और उस राष्ट्र के इष्टदेवता कनिगजिन-आदि- राज्य देकर चन्द्रगुप्त मुनि होकर दक्षिण की ओर चला जिन (तीर्थंकर ऋषभदेव की प्रतिमा को उठाकर पाटलि- गया । और श्रवणबेलगोल पहंचा। वहां पर्वत पर तपस्या पुत्र (मगध) ले आया था। राजा खारवेल पुन. इस मूर्ति कर देहत्याग किया। उसी समय से वह पर्वत चन्द्रगिरि को मगध से कलिंग ले गया और अपने राज्य में उसे फिर के नाम से प्रसिद्ध हआ। उनके समाधिमरण स्थान पर प्रतिस्थापित किया। इस उल्लेख से राजानन्द एव खारबेल चरण-चिद्ध भी बने हातानी TEAM की जिनधर्म में श्रद्धा एवं भक्ति का महान् परिचय मिलता पगति" में चन्द्रगुप्त मौर्य को उन मुकुटबद्ध मांडलिक है। विन्सेन्ट स्मिथ तथा कैम्ब्रिज हिस्ट्री के अनुसार, सम्राटों में अन्तिम कहा गया है, जिन्होंने दीक्षा लेकर नन्दराजा जैनधर्म के अनुयायी थे। इस वश के अन्य ।
अपना अन्तिम जीवन जैन मुनि के रूप में व्यतीत किया। उत्तराधिकारी भी जैनधर्मानुयायी रहे है। इन्ही नन्द
उसके पुत्र बिन्दुमार को भी उसका अनुकरण करने वाला वंशीय राजाओ के समय में श्रुतकेवली भद्रबाहु को मृत्यु बताया गया है। जमने भी अनेक मन्दिरों आदि का हई। सम्भवतः इसी समय वह परम्पराप्रसिद्ध भयकर निर्माण कराया था। दभिक्ष पड़ा, जिसकी सूचना पाकर भद्रबाहु दक्षिण
कोबिन्दुमार के पश्चात् उसका पुत्र अशोक मौर्य साम्राज्य ओर विहार किए थे।
का अधिपति बना। आधुनिक इतिहासकारों ने उसकी तत्पश्चात चन्द्रगुप्त मौर्य ने आचार्य चाणक्य को गणना संसार के महान सम्राटों मे की है। अशोक के अपने सहायता से मौर्य साम्राज्य की स्थापना की। प्राचीन जैन
श्रद्धास्पद धर्म के विषय में कोई स्पष्ट जानकारी नही अनश्रतियों के अनुसार चाणक्य के माता-पिता जन्म से मिलती है। उसके सम्बन्ध मे सबसे बडे अधार वे ऐति. बादाण और धर्म से श्रावक (जैन) बनाये गये हैं। चन्द्र- हासिक शिलालेख हैं जो उसके द्वारा लिखाये माने जाते गुप्त ने चाणक्य के सहयोग से साम्राज्य का संगठन एवं है। इन शिलालेखो के आधार पर कुछ विद्वानों को शासन की सचारु व्यवस्था की। उसने पड़ोसी राजामा मान्यता बनी है कि वह बौद्धधर्म का अनयायी था और को जीतकर उज्जनी को अधिकृत किया । और बौद्धधर्म के प्रचार-प्रसार के उद्देश्य से उसने ये लेख लिखफिर दक्षिणदेश की विजय करने के लिए यात्रा की। वाये । कुछ अन्य विद्वानो के अनुसार, इन शिलालेखों के मट में गिरिनगर (गिरनार) के नेमिनाथ की उसने भाव और विचार बौद्धधर्म की अपेक्षा जैनधर्म के अधिक वन्दना की। और गिरिनगर पर्वत की तलहटी मे सुदर्शन निस्ट हैं। उमका कुलधर्म भी जैन था इसलिए वह अपने झोल नामक विशाल सरोवर का निर्माण करवाया । इसी सम्पूण जीवन भर नही तो कम से कम अपने जीवनकाल सील के तट पर निग्रन्थ मुनियो के निवास के लिए उमने के पूर्वाद्ध मे वह अवश्य जैन रहा है। अनेक विद्वान् ऐसे अनेक गुफाएं बनवायीं, जो आज चन्द्रगुफा आदि के रूप भी हैं. जिनका मत है कि वह न मुरूपत. बौद्ध था और न २ प्रसिद्ध है।
ही जैन, अपितु एक नीतिपरायण सम्राट था, जिसने प्रजा चन्द्रगुप्त मौर्य जैनधनुरागी था। वह साधुणों का के नैतिक उत्कर्ष के लिए एक ऐसा व्यवहारिक राष्ट्रधर्म विशेष रूप से आदर करता था। जैनपरम्परा मे उसे शुद्ध लोक के सम्मुख प्रस्तुत किया था जो सर्वजन ग्राह्य था। क्षत्रिय कुल मे उत्पन्न कहा गया है, ब्राह्मण साहित्य को उसके जीवन के प्रमुख एवं भीषण कलिंग युद्ध ने उसको भांति वृषल या शुद्र नही। उसने अनेक अतिथिशालाएं, मानसिक कायाकल्प कर दो, और उसने युद्धों से विरत धर्मशालाओं का निर्माण कराया। स्वय सम्राट श्रमणो रहने की प्रतिज्ञा की। फिर उसने अनेक लोकापयोगी और ब्राह्मणों को निमन्त्रित करता था। उनका आदर कार्य कराये। अशोक श्रमण और ब्राह्मण दोनों वर्गों का करा था। इस सम्राट के विरत्न, चैत्य एव दीक्षावृक्ष आदर करता था। उसने पशुवध का निवारण करने और