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भट्टारक हर्षकीति के 'पद'
a डॉ० गंगाराम गर्ग, भरतपुर
भट्टारक सकलकीति, ब्रह्म जिनदास, ब्रह्म यशोधर जिन देह जोति जीती सहम भान । भीमसेन तथा ब्रह्म वूपराज के इने-गिने पदों के रूप मे प्रभु सो सरण सोभाभिराम । जैन पद साहित्य का बिखरा-विखरा अस्तित्व प्राप्त हो मणि छांडि कांच खंड को गहत । जाने पर भी सत्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि गंगादास के दूध छांडि कजिका को पिबति । ५०-६० पदों में ही इस विशिष्ट काव्यरूप का धारा-रूप धारि सुभ दया सार, निर्मित हुआ है। गंगादास के बाद आविर्भत भट्टारक
कौन आन धर्म सेवं असार । रत्नकीर्ति और भट्टारक कुमुदचन्द्र के पदों में दास्यभावना
मिध्यात पाप उपजे अनंत । की अपेक्षा राजुल-विरह की अभिव्यक्ति अधिक हैं। जैन
काडू मधे काडू घोवंत । पद काव्यधारा को गतिमान बनाने में महाकवि बनारसी
कहै 'हरषकीति' प्रभू गती पाय । दास और उनके गुरु पाण्डे रूपचन्द के समकालीन कविहर्ष
मिथ्यान करत थे पोहि छुडाय ।। कीति का विशिष्ट योगदान है । अभी तक प्राप्त २५-३०
भक्ति के प्रेरक तत्वो में जन्म-जन्मांतरों के कष्टों पदों के अतिरिक्त हर्षकीर्ति की ज्ञात रचनाएँ इस प्रकार
और काल की भयावहता का आभास सभी संत मोर
वैष्णव भक्तों ने बहुलता से कराया है। जन भक्त कवियों (१) चतुर्गति बेलि (सं० १६८३, (२) नेमि राजुल
को भी इन दोनों स्थितियों ने भयाक्रान्त किया है। नरक गीत, (३) नेमीग्वर गीत, (४) मोरहा, (५) नेमिनाथ का
तियंच गति और नर गति के कष्टो के प्रसंग मे हर्षकीति बारहमासा, (६) कर्म हिंडोलना, (७) बीस तीर्थकर की
का कथन है :जखडी, (८) पावं छन्द, (९) श्रीमंधर को समोसरन,
हं तो कांई बोल रै, भव दुख बोलणी न आवै । (१०) जिनराज की जयमाल, (११) जिन जी को वधावो,
नरक निगोदिहि काल अनादि ही, कर्म लिखा भटकाव रे। (१२) पर नारी निवारण गीत, पन क्रिया जयमाल
नर गति लीन्हो तीरजंच छीन, गर्भयबास हराव रे। (सं. १६८४) तथा सासु बहू को संवादो।
जौंनि अधमुख मास रधो नौ, गिरै अर विललावं। एक विशिष्ट पद के आधार पर हा. कस्तूरचन्द
कस्तूरचर जोबनरातो आरंभखातो, धरि चिना मन तारे। कासलीवाल ने इनका सम्बन्ध प्रसिद्ध तीर्थ श्री महावीर
पर के कारण परधन बांछिन आपण नेम ललाव रे। जी से जोडते हुए इन्हें राजस्थानी माना है । हर्षकीति का
संपति हीणुं आप दुखीन, जण गण 4 राव रे । इससे अधिक परिचय अभी तक ज्ञात नहीं हो सका।
देस विदेस फिरतन कीन, सही मूल गवावा रे । हर्षकीर्ति के प्राप्त कतिपय पदों का प्रतिपाद्य भक्ति, लख चौरासी जूनि जु वामी, धरि धरि स्वांग पछावै रे। राजुल विरह एवं नीति-प्रतिपादन 'आत्म-निरूपण' रहा 'हरकिरत' सति मो भजि श्रीजिन. है। जिनेन्द्र के नाम स्मरण में हर्षकीर्ति को अधिक आस्था
तात अनंत सुख पाव रे।
समर्थ काल कर्मों के अनुसार व्यक्ति को अवश्य ही नहिं छांडो हो जिनराज नाम ।
दण्डित अथवा पुरस्कृत करता है-ऐसा हर्षकीति का दोष अठारह रहत देव, जाकी सुर नर करत सेव। विश्वास है