Book Title: Anekant 1992 Book 45 Ank 01 to 04
Author(s): Padmachandra Shastri
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 31
________________ पुष्पदन्तकृत-जसहरवरित में वार्शनिक समीक्षा कृति में इसका स्पष्ट वर्णन देखने को मिलता है। अहिंसा वासना के नष्ट होने पर ज्ञान प्रकट होता है, कुछ अपूर्ण धर्म की प्रतिष्ठा और महत्ता के लिए कवि ने कहा है कि होती है, क्योंकि वामना का भी अणमात्र के लिए अस्तित्व पुण्य के अर्जन हेतु चाहे मंत्र-पूजित खड्ग से पशु बलि करे रहता है, दूसरे हो क्षण वह परिवर्तित हो जाती है। अथवा यज्ञ करे या अनेक दुर्धर तपों का आचरण करे, और जोव-आत्मा को पृथक सत्ता विषयक समीक्षा:किन्तु जीव दया के बिना सब निष्फल है। शास्त्रों में यही दार्शनिक पिवान्तों की समीक्षा के अन्तर्गत कवि ने कहा गया है कि जो पाप है वह हिंसा है और जो धर्म अन्य दर्शनो की जीव/आत्मा विषयक मान्यताओं को भी (पुण्य) है, वह अहिंसा'। इसलिए प्राणिन्ध को आत्मवध अछूता नही छोड़ा । जीव (आत्मा) और देह (शरीर)को समरूप माना गया : १० । पृथक् सत्ता नहीं मानन वाले चार्वाक दर्शन के-"जिस "प्रत्यक्ष ही प्रमाण है" का खण्डन : प्रकार वृक्ष के पुष्प से गन्ध भिन्न नहीं होतो, उसी प्रकार भारतीय दर्शनो में चार्वाक दर्शन को अपनी अलग देह से जीव भी अभिन्न है।" उक्त कथन पर कवि ने मान्यता है, महत्ता है। उसके अनुसार "प्रत्यक्ष ही प्रमाण अपनो समीक्षात्मक शैली में प्रात्मा और पर (देह) के है"ऐसा मानना, जीव और उसकी सत्ता को अभिन्न भेद को स्पष्ट किया कि जिस प्रकार चम्पक की करना है तथा मोक्ष आदि के अस्तित्व को नकारना है। मामले की क्योंकि मोक्ष की कल्पना अनुमान से सिद्ध है न कि प्रत्यक्ष (सुवास) पृथक् है. उमी प्रकार यह देह और जीव की प्रमाण से। भिन्नता भी सिद्ध है। इन दोनो का पृथक् अस्तित्व है" । जसहरचरिउ में एक स्थान पर जब तलवर मुनि से अन्य मे जीव को मत्ता को लेकर प्रश्न मिलता है कि कहता है कि "मैं किसी धर्म, गुण या मोक्ष आदि को क्या जीव को शरीर से अलग हुआ किसी ने देखा है। नहीं जानता हूं। मैं केवल पचेन्द्रिय सुख (जो प्रत्यक्ष है) इसके समाधान में नमान का सहारा लेकर कहा गया है को ही सब कुछ मानता है", इसके उत्तर म मुनि द्वारा यह कहना कि-"ससार मे जीव अनेक योनियो मे जीवन- कि-"जिस प्रकार दूर से आता हा शब्द दिखाई नही देता, परन्नु शब्द कान मे लगने पर अनुमान-ज्ञान होता मरण के दुःखों और कर्मों के फल को भोगता है। इसीलिए मैं पंचेन्द्रिय सुख का त्याग करके निर्जन स्थान मे है, उसी प्रकार नरक-योनियो मे जीव की गति होती इसलिए जीव अनुमान से सिद्ध है"" रहते हुए भिक्षावृत्ति करता ह" चार्वाक दर्शन के बौद्ध दर्शन में आत्मा को पचस्कध (रूप, वेदना, "प्रत्यक्ष हो प्रमाण है" के खण्डन को प्रतिपादित करता है। संज्ञा, संस्कार और विज्ञान) का समुच्चय मात्र माना क्षणभंगुरता की समीक्षा: गया है, किन्तु ये स्कध क्षणमात्र ही स्थायी रहते हैं इसबौद्ध दर्शन में प्रत्येक वस्तु क्षण-विध्वंसी बताई गयी लिए उनका यह कथन भी पायो।चा नहीं कहा जा है। प्रत्येक वस्तु का मात्र एक ही क्षण अस्तित्व रहता है। सकता। घर अगले क्षण में वह परिवर्तित हो जाती है। इसी इस प्रकार इस ग्रन्थ में जहाँ एक और अहिंसा की प्रकार बौद्ध दर्शन में जीव की भी क्षणिक सत्ता मानी गई महत्ता को हिंसा के दुष्परिणामों के माध्यम से उजागर है। जिसके लिए कवि आपत्ति करता है कि-"यदि जीव किया गया है, वहीं दूसरी ओर तत्कालीन समाज की धर्म (चेतन) क्षण-क्षण में अन्य-अन्य हो जाता है तो छ: मास एवं दर्शन विषयक मान्यताओं को भी प्रस्तुत किया गया तक व्याधि (रोग) की वेदना (दु.ख) कौन (रोगी) सहन है। जैनधर्म व दशन के सिद्धान्तों को प्रतिष्ठापित करता है"। क्योकि जो प्रारम्भ मे रोग ग्रस्त होता है, करते हए अन्य दर्शनो की मान्यताओं पर अपनो आपत्ति छ: माह में उसका अस्तित्व अणिकवाद के अनुसार समाप्त प्रस्तुत करके कवि ने उक्त उक्तियो के माध्यम से उनका हो जाता है। इसी प्रकार बौद्धों की यह मान्यता कि (शेष पृ० ३२ पर)

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