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किरण १.२]
पराधोनका जीवन ऐसा
नहीं, दम्भ कहते हैं-भोले प्राणो!'
हृदय भर आया-उसका। भैय्याकी तपस्याने भर्तृहरिको अपने भीतर कुछ उजेला-सा होता मोह लिया ! पैरोमें गिरकर बोला-'मुझ डूबतेको मालूम दिया !
उबारिए-महाराज ! ...!' मैं अपनेको आपके शुभचन्द्र कहते ग!-'सोनको ही इच्छा है, तो लो चरण-रणमे अर्पण करता हूँ !'* कितना सोना चाहते हो ?
*म कथाके पात्रोमे 'भतृहरि' वह भर्तृहरि नही जान और अपनी चरण-रजको चुटकीमें भरकर, उस पड़ता जो राजा था और राज्यशासनको चलाता हुया स्त्रीविशाल पापाण-खण्ड पर छोड्दी !
चरित्रको देखकर वैरागी हुआ था तथा जिसने वैराग्यशतकादि तपोबलको अचिन्त्य-शक्ति !!!
ग्रन्याकी रचना की है; अथवा 'शुभचन्द्र' वह शुभचन्द्र वह सारा पत्थर सोना बन गया ! भर्तृहरि आँखे नहीं, जो दिगम्बर ग्रन्थ 'ज्ञानार्णव' का रचयिता है। क्योंकि फाड़े देखता-भर रह गया-अचम्भित-सा!
उक्त भतृहरि राजा और ज्ञानार्णव-कर्ता शुभचन्द्र दोनांका समय एक नहीं है।
-सम्पादक
पराधीनका जीवन ऐसा!
[१] मनों-अन्न उपजाने पर भी,
पाता है जो रूखा-सूखा ! दुनियाका तन ढकने वाला ,
खद रहता है नङ्गा-भूखा !! 'हलधर' आज कहाकर भी जो
रहा मगर जैसे का तैसा ! पराधीनका जीवन ऐसा !!
[३] जीवन कहना ठीक नहीं है, इसे मृत्यु कहना सुन्दर है ! क्योकि 'दीनता' में 'जीवन में, एक बड़ा मौलिक अन्तर है !! जीवन, जागृति मय होता है, मृत्यु-मम्मिलित जीवन कैसा ? पराधीनका जीवन ऐसा !!
मान, गुलामोंके नसीबमें ,
बच्चे भूख - भूख चिल्लातेनहीं कभी सुनने में आया !
घरमें दाना अन्न नहीं है! उसको तो गाली मिलती हैं
क्यों न हमें कह लेने दो अबजाता है दर - दर ठुकराया !!
छोटा-मोटा नरक यहीं है !! कष्ट भोगनेको जन्मा है !-,
हाथ-पाँव हैं, नाक - कान हैं, भोग रहा है प्रतिदिन जैसा!
अगर नहीं है तो वस, पैसा! पराधीनका जीवन ऐसा !!
पराधीनका जीवन ऐसा !! "-[श्री भगवत्' जैन]