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किरण ६-5]
गोम्मटेश्वरका दर्शन और श्रवणबेलगोलके संस्मरण
मार्ग अङ्गीकार करना चाहिए, जिससे शाति लाभ उतनी तृष्णाकी दृष्टि होती जाती है । इस सम्बन्धमें हो कीर्तिका रक्षण होगा, और भरतकी भी अभिलाषा अग्नि और इंधनका उदाहरण प्रसिद्ध है। जब बाहुबलिने पूर्ण हो । आखिर वह मेरा ही ज्येष्ट भाई है। इन सब पट खंडविजेता भरतको पराजित कर दिया, तब उनकी जयाबातोकी प्राप्ति एक राज्य-परित्यागसे हो सकती है। भरत काक्षा और बढ़ गई तथा उनकी उस्कठा विश्व विजयी बननेकी राज्यको बहुत भले ही मानते हो, किन्तु बाहुबलिकी हुई। चारो दिशाओं में दृष्टिपात करनेपर उनको कोई शत्र नही दृष्टिमे राज्य बहुत चिंताका बढ़ाने वाला ही था। यही कारण दिखाई दिया, किन्तु जब अंतःकरण में दृष्टि गई, तो एक है, क जब भरतका दूत बाहुबलि के समीप यह कहनेको पहुंचा. नही अपरिमित शत्रुओंका--महाशत्रुनोका समुदाय देना, कि अप भरतकी अधीनता स्वीकार कीजिए, तब बाहुबलिने जो मोहके नेतृत्व इस श्रात्माके गुणोंका नाशकर इसे सदा कुशल-क्षेमकी चर्चा करते हुए पूछा था-"बहुचितत्य दु.ख दिया करते थे । उस समय बीरशिरोमणि बाहुबल चक्रिणः कुशलं किम ” ?-अधिक चिंताओये लदे हुए का पौरुष जागा । उनने सोचा, यदि मैंने इन शत्रुग्रीका चक्रवर्तीकी कुशल तो है न ? यहा 'बहचिंत्यस्य' शब्दके दमन न किया, तो मेरा वीरस्य वृथा है । अतः जयशील द्वारा बाहुबलि की प्रात्माको श्राचार्यने पूर्णतया स्पष्ट कर बाहुबलिने पापवासनाश्रीको निर्मूल करनेके लिये विशाल दिया है, कि वे राज्यको श्रानंदका साधन न मानकर उसे साम्राज्यका त्याग किया और एक आसनसे खड़े होकर कर्मों भाररूप तथा चिंताका कारण समझते थे। उनकी मनोवृत्ति का नाश करने के लिए घोर तपश्चर्या प्रारंभ कर दी, और का एक अंग्रेज कवि भी इस प्रकार समर्थन करता है :- अंतमे कैवल्यका लाभ करके 'मारिविजयी जेता" की
“Uneasy lies the head that wears प्रतिष्ठा प्राप्त की। अत: यह विचार भी सगत प्रतीत होता है, a erown."
कि विश्वविजेता बननेके लिए बाहुबलि स्वामीने साम्राज्यका 'जिस मस्तक पर राजमुकुट विराजमान रहता है, वह परित्याग किया। सदा बेचैनीका अनुभव करता है। बाहुबलि राज्यवृद्धिको यह भी कहा जाता है. कि जब भरतने राज्यकी ममता श्राकुलताका वर्धन अनुभव करते थे, इमीये जहां उनके के कारण नीति मार्गके विपरीत बाहुबलिपर चक्र-प्रहार कर भाई भरत राज्यपर राज्यविजय प्राप्त करते जाते थे, वहाँ उनके प्राण लेनेका भाव व्यक्त किया और वह विफल बाहुबलि अपने पोदनपुरमे पूर्णतया मनुष्ट थे और उनके हुश्रा, तब बाहुबलि स्वामीके श्रतःकरण मे सहज-विरक्तिने चित्त में साम्राज्यवृद्धिकी लालसा नही थी। यदि बाहुबलि जन्म लिया कि-"धिक्कार है, इस राज्य-नृष्णा और भोगाका श्राम-गौरव संक्टम न पाता तो ये भरतके साथ युद्ध के कांक्षाको, जिसके कारण भाई भाई के प्राण का ग्राहक बनता लिए भी तैयार न होते । भरतके साथ युद्ध करनेमे बाहु है।" यथार्थमे सांसारिक विभूतियोंम एक न एक श्रापत्ति बलिकी राज्य-कामना कारण नहीं थी, किंतु अपने क्षत्रियव लगी रहती है। सच्ची निर्भीरता तो वैराग्य भावमे ही प्राप्त तथा वीरवकी मर्यादाका संरक्षण करना था। अपने गौरव होती है-वैराग्यामवारम।' उनके करणापूर्ण अंत की रक्षा करते हुए साम्राज्यकी प्राप्ति आनुषंगिक फल था। करणमे यह भी विचार उत्पन्न होना संभव है कि मैंने व्यर्थ इस कारण बाहुबलिने क्षणभरमे यही गंभीर विचार किया, ही नश्वर राज्यके पीछे अपने जयशील, चक्रवर्ती बननेवाले कि मेरे लिये अपनी शाति और कुलके गौरवकी रक्षार्थ सम्मान भाईकी प्राशाओंपर पानी फेर दिया और उनके संतापका पूर्ण तथा कल्याण प्रद एक ही मार्ग है, और वह यह कारण बन बैठा। ऐसे ही कुछ सत्कारण थे जिनने विजयी कि मैं राज्यके संकीर्ण क्षेत्रसे निकल कर प्राकृतिक दिगम्बर बाहुबलिके अंत:करणको प्रभावित किया, प्रकाशित किया मुद्राधारणकरूं और विश्वमैत्रीका अनुभव करूं।
और इसीसे उन्होंने उस मुद्राको धारण किया, जो प्रकृतिसे भगवान बाहुबलिके दीक्षा लेनेको इस प्रकार भी प्राप्त है, जिसमे संपूर्ण विश्व अंकित देखा जाता है, और जो युक्तियुक्त बताया जा सकता है कि संसारके पदार्थोका कुछ निर्विकारता तथा पूर्ण पवित्रताको प्रगट करती है। ऐसा स्वभाव है, कि उन्हें जितना जितना भोगी उतनी भगवानके शरीरसे लिप्त माधवीलता और मर्प श्रादिका