Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 375
________________ ३४८ अनेकान्त [वष ५ अंशमें स्पर्श भी न करने तककी बात भी वे लिख गये है प्राचार्य कुन्दकुन्द पृज्यपाद में बहुत पहले हो गये हैं। अत: उमपर-द्वितीय माधनपर-विचार कर लेना ही पृज्यपादने उनकं मोक्षाभृतादि प्रन्यीका अपने ममाधितंत्र श्रावश्यक जान पड़ना है। और उमीका इस लेखमें श्रागे माग में बहुत कुछ अनुसरण किया है-कितनी ही गाथाश्रीको में बहत प्रयत्न किया जाना है। तो अनुवादितरूपम ज्यांका त्या रस्व दिया है और कितनी सबसे पहले मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि यद्यपि ही गाथाश्रोको अपनी मर्वार्थसिद्धि म 'उक्तं च श्रादि रूपसे किमी प्राचार्य के लिये यह आवश्यक नहीं है कि वह अपने उद्धृत किया है, जिसका एक नमूना ५ वे अध्यायकं १६ पूर्ववर्ती श्राचार्योक मभी विषयोको अपने ग्रन्थम उल्लेखित वे मूत्रकी टोकामे उद्देन पंचास्तिकायकी निम्न गाथा हैअथवा चर्चित करे-पेसा करना न करना प्रथकारकी रुचि- अएणोण्णं पविसंता दिता ओगासमण्णमण्णस्स । विशेषर अवलम्बित है। चुनाचे ऐम बहुनमे प्रमाण उपस्थित मेलता वि य गिचं सगं सभावं ण विजहंति ॥७॥ मेलनावि tin किये जासकते हैं जिनमें पिछले प्राचार्योंने पूर्ववर्ती प्राचार्यों की कितनी ही बातों को अपने ग्रन्याम कुश्रा नक भी नही; ऐमी हालतम पूज्यपादक द्वारा 'सप्तभंगी' का राष्ट्र इतनेपर भी पूज्यपादके मब अन्य उपलब्ध नहीं है । उनके शब्दोमे उल्लेख न होनेपर भी जैसे यह नहीं कहा जा 'सारसंग्रह' नामक एक खाम ग्रन्थका 'धवला' म नय- मकता कि प्रा० कुन्दकुन्द पृज्यपादके बाद हुए है वैसे विषयक उल्लेख मिलता है और उसपरसे वह उनका यह भी नहीं कहा जा सकता कि समन्तभद्राचार्य पृज्यपाद के महत्वका स्वतन्त्र ग्रन्थ जान पड़ता है । बहुन सम्भव है कि बाद हुआ है-उत्तरवर्ती है। और न यही कहा जा सकता उममे उन्होंने 'समभंगी' की भी विशद चर्चा की दो। उस है कि 'मप्तभंगा एकमात्र समन्तभद्रकी कृति है-उन्दीकी प्रन्थकी अनुपलब्धिकी हालतमे यह नहीं कहा जा सकता जैनपरम्पराको नई दन' है । एमा कहनेपर श्राचार्य कि पूज्यपादने 'सप्तभगी' का क विशद कथन नही किया कुन्दकुन्दको समन्तभद्रके भी बादका विद्वान कहना होगा, अथवा उसे था तक नहीं। और यह किमी तरह भी सिद्ध नहीं किया जा सकता मर्कगका ताम्रपत्र और अनेक शिलालेख तथा अन्योके इसके सिवाय, 'सप्तभंगी एकमात्र समन्तभद्र की ईजाद उल्लेख इमम प्रबल बाधक है। अत: पं० सुग्वलालजीकी अथवा उन्हीके द्वारा आविष्कृत नहीं है, बल्कि उमका सप्तभगी वाली दलार टीक नहीं है-उसमें उनके अभिमत विधान पहलेसे चला पाता है और वह श्रीकुन्दकुन्दाचार्यके की मद्धि नही हो सकती।। अन्धोंमें भी स्पष्टरूपस पाया जाता है, जैसाकि निम्न दो गाथाश्रोमे प्रकट है अब मैं यह बतला देना चाहता हूँ कि पं० सुखलाल जीने अपने साधन (दलील) के अंगरूपम जो यह प्रतिपादन अत्थि त्तियणत्पित्ति य हवदि अवत्तवमिदि पुणो दव्वं। ' किया है कि 'पूज्यपादने समन्तभद्र की असाधारण कृतियोका पजायेण दु केण वि तदुभयमादिट्ठमण्णं वा ॥२-२३ किसी अंशमे सर्श भी नही किया वह अभ्रान्त न होकर -प्रवचनसार वस्तुास्थतिके विरुद्ध है; क्योकि समन्तभद्रकी उपलब्ध पाँच सिय अत्थि णत्थि उहयं अव्वत्तव्वं पुणो य तत्तिदयं। असाधारण कृतियोममे प्राप्तमीमासा, युक्त्यनुशासन, स्वयंदव्वं खु सत्तभंगं आदेमवसेण संभवदि ॥१४॥ भूस्तोत्र और रत्नकरण्डश्रावकाचार नामकी चार कानयोका -पंचास्तिकाय स्पष्ट प्रभाव पूज्यपादकी 'मर्वार्थसिद्धि' पर पाया जाता है. जैसा कि अन्तःपरीक्षण द्वारा स्थिर की गई नीचेकी कुछ *देखो, न्यायकुमुदचन्द्र द्वि०भागका 'प्राकथन' पृ० १८ । तुलना परसे प्रकट है। इस तुलनाम रक्खे हुए वाक्यो परसे "तथा मारमंग्रहेऽयुक्त पूज्यपादै:-'अनन्तपर्यायात्मकस्य वस्तुनोऽन्यतमपर्यायाधिगमे कर्तव्ये जात्यहेत्वपेक्षो निग्वद्य- देखो, वीरसंवामन्दिरसे प्रकाशित समाधितंत्र' की प्रस्तावना प्रयोगो नय' इति ।" पृ० ११, १२।

Loading...

Page Navigation
1 ... 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460