Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 422
________________ किरण १२] समन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन ? ३६१ के कुमारिलकृत खंडनके जवाबसे भी यही मभ्रान्तरूपसे तौर पर एक स्थल उपस्थित किया जाता है जिसपरसे भी मालूम होता है, जिसमें उन्होंने 'अनुमानविम्भितम्' पाठक यह सहजमें ही जान सकेंगे कि समन्तभद्र वस्तुतः पदका प्रयोग करके यह स्पष्ट किया है कि कुमारिलने मात्र कुमारिलके पूर्ववर्ती विद्वान थे । वह स्थल निम्न प्रकार हैजैनमम्मत केवलज्ञानका ही खडन नही क्यिा किन्तु जो घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिप्वयं । केवलज्ञान (सर्वज्ञता) अनुमानके द्वारा विजम्भित (समन्त शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य जनो याति सहेतुक्म ।। भद्रद्वारा स्थापित किया गया है उसका उन्होंने खंडन पयोव्रतो न दयत्ति न पयोत्ति दधिवतः। किया है। अगोरसवतो नोभे तस्मात्तत्त्वं त्रयात्मकम् ॥ कुमारिलने समन्तभद्रके अनुमेयम्व' का खंडन करनेके लिये भी अनुमेयन्व जैसे ही प्रमेयत्वादिको सर्वज्ञके सद्भाव -आप्तमी० का० ५६, ६० के बाधक बतलाकर जो यह कहा था कि 'जब प्रमेयत्व समन्तभद्रकी इन कारिकाओंकी प्रतिबिम्बरूप कुमाभादि कर्वज्ञके बाधक हैं तब कौन उस सर्वज्ञकी कल्पना रिखकी निम्न कारिकार्य हैं--- करेगा ? वह भी अकलंकको सहन नहीं हुआ और इसलिये 'वधमानकभङ्गच रूचकः कियते यदा । वे समन्तभद्रके 'अनुमेयत्व' हेतु की पुष्टि करते हुए कुमा- तदा पूर्वार्थिनः शोकः प्रीतिश्चाप्युत्तरार्थिनः । रिलको उनके इस खडनका निम्न प्रकार जवाब देते हैं। हेमाथिनम्तु माध्यस्थ्यं तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम् । "तदेवं प्रमयत्वसत्वादिर्यत्र हेतुलक्षणं पुष्णाति न नाशेन विना शोको नोत्पादेन विना सुखम ।। नं कथं चेतनः प्रतिपेद्भुमर्हति संशयितुं वा।" स्थित्या विनान माध्यरथ्यं तेन सामान्यनित्यता।' -श्रष्टश. प्राप्तमी० का०५ -मी० नोवा०पृ०६१६ अर्थान-प्रमेयन्व और सन्द आदि अनुमेयत्व हेतुका पाठक, देखेंगे कि इन कारिकाप्रोम समन्तभद्रका कितना पोपण करते हैं नो कौन चेतन उस सर्वज्ञका निषेध या अधिक विचारसाम्य और शब्दसाम्य पाया जाना है। इनके उसके सद्भावमे संदेह कर सकता है ? अर्धका स्फोट करनेकी भी आवश्यकतामालूम नही होती, वह बौद्ध विद्वान् शांतरक्षितने भी कुमारिलके इस बंडन ऊपरसे ही स्वत. मालूम पर जाता है। अत: यह असंदिका जवाब दिया है और वह उचित ही हैं, क्योकि सर्वज्ञ ग्ध है कि समन्तभद्र कुमारिल के उत्तरवर्ती न होकर पूर्वको माननेवाले बौद्ध भी है-भले ही वे उसे गौणरूपमे ही वर्ती विद्वान हैं। क्या न मानने हों। ऐषी हालसमे अवैदिक कहे जानेके कारण कुमारिल के लक्ष्य जैनोंके साथ बौद्ध भी हो सकते समन्तभद्र और धर्मकीर्ति समन्तभद्रने अपनी प्राप्तमीमांसामें 'स्यावाद' (भनेहैं। प्रत. कुमारिलके खंडनका जवाब अकलंक और शांतरक्षित दोनों दे मकते हैं। कान्तवाद) का लक्षण निम्न प्रकार किया है-- स्याद्वादः सर्वथैकान्तन्यागात्तिवृत्तचिद्विधिः। कुमारिलने समन्तभद्रकी केवल अालोचना ही नही की, बल्कि अनेक स्थानोपर उनकी विचारसरणि और मप्रभङ्गन्यापेक्षो ध्यादेयविशेषकः ॥१०४।। इसमें बतलाया है कि 'सर्वथा एकान्तके त्यागपूर्वक जो उनके पद-वाश्योंका अनुसरण भी किया है। यहां नमूनेके 'किचिन' का विधान है वह स्याहार है--अनेकान्तसिद्धान्त १ प्रत्यक्षा विभवादि प्रमेयत्वााद यस्य च । है। धर्मकीर्ति ममन्तभद्रके इस लक्षणको पालोचना करते मद्भायवारणे शक्तं नु त कल्पयिष्यति म हैं और उनके द्वारा प्रयुक्त "किंचिन' शब्दका उपहास करते -मी० श्लो० चोदनामू० का० १३२ हुए प्रमाणवार्तिकमें लिखते हैं-- : एवं यस्य प्रमेयत्ववस्तुसत्त्वादिलक्षण । एतेनैव यत्किञ्चिदयुक्तमश्लीलमाकुलम । निरन्तुं हेनवो शक्ता को न नं कल्यायष्यिति ॥ -तत्त्वसं० का०८८५ प्रलपन्ति प्रतिक्षिां तदायेकान्तमभवान ।। १-१८२

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