Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 450
________________ किरण १२] साहित्य-परिचय और समालोचन ४१६ याति ५७५ क्तित्व' और 'कलात्मक आत्माभिव्यंजन' की ओर १६४ जैसी विरी(?)कुरीजाकी जैसी चिरी कुरीजकी पाठकोंका ध्यान आकर्षित किया है। और उनकी इस २३७ तूप कृतिक महत्व-सम्बन्ध में लिखा है- २५२ देइ दिये हैं कपाट दर दर दिये कपाट "हमारे साहित्यकी जो खोज अभी तक हुई है ३३५ नाहिन जांहि न उसके अनुसार प्राचीन हिन्दी साहित्यकी यह पहली ३६६ साथ नाथ और अकेली आत्म-कथा है, और कदाचित् समस्त मीत गीत आधुनिक भारतीय आर्यभाषा-साहित्यमें इससे पूर्वकी ४३४ धी उन घीउ न कोई आत्म-कथा न निकलगी। केवल इस नाते भी ४७८ पटने पढ़ने कृतिका अपना महत्व है। फिर लेखन-कलाकी दृष्टिस धने घने तो प्रस्तुत आत्म-कथा एक उत्कृष्ट रचना है।" इत्यादि संग संघ साथ ही, कविवरके जीवनकालसे सम्बन्धित एवं ६२७ द्रगद (?) प्रगट आत्मकथामें उल्लेखित घटनाओंकी जाँच करके ६३६ पढ़ता पंडित लिग्या है कि-"फलतः 'अर्द्धकथा' की ऐतिहासिकता ६४३ मुष वद्या मुख वद्य भली भॉति प्रमाणित है।” सुरत न भई सुमिरन भई ६४६ इमके सिवाय, प्रस्तुत पुस्तक तथा कविवरकी जथा दशा अन्य कुछ कृतियों में पाई जानेवाली कतिपय तिथियों ६५० मन परे जधर अवधधरमनपर अरु अवधिधर को 'इंडियन क्रानोलोजी' मे दिये हए चक्रों आदिके ६५३ सम बीच यहु भांत(?) यह उकिष्टी दौर आधारपर अशुद्ध पाकर यह कल्पना की है कि वे यदि श्रद्धेय पं. नाथूरामजी द्वारा सम्पादित लिपिकारोंकी असावधानीका परिणाम जान पड़ती हैं। 'बनारमीविलाम' में दिये हुए कविवरके परिचयको ___ ग्रन्थका प्रकाशन किमी बहत ही अशुद्धि प्रतिपरस ही ध्यानस देख लिया होता तो इनमेंसे बहतमी किया गया है। इसी पन्तकभर में प्रशद्धियोंकी भर- अशुद्धियोंका सहज हीमें संशोधन होजाता। परन्त मार है। कितनी ही अशुद्धियाँ तो ऐसी रह गई हैं उक्त विलासके पासमें रहते हए भी पुस्तकके संशोधन जिनका सुधार जन नियमोंको लक्ष्य में रखकर भी में उसका उपयोग नहीं किया गया, यह आश्वयका महज ही में किया जा सकता था जिनका उल्लेख विषय है ! इस प्रकार यह सरकरण अशुद्धियोंसे परिसम्पादकजीने भूमिका में किया है । और इसमें यह पूर्ण है । इतना होने पर भी यह घटिया कागज पर कहे विना नहीं रहा जाता कि पम्नकका सम्पादन जैमा छपाया गया है और मूल्य एक रु० रक्खा गया है, जो होना चाहिये था वैसा नहीं हो सका है और उसके बहुत अधिक है। फिर भी सम्पादक और प्रकाशक लिये एक उत्तमम्पम सम्पादित मंस्करणकी जरूरत का यह प्रयत्न हिन्दी जगनके लिये प्रशंसनीय हैं। अभी बनी हुई है। इस संस्करणमें बहुत ही खटकने ३ पावन-प्रवाह-लेखक, पं. चैनसुखदामजी वाली अशुद्धियों में से कुछ अशुद्धियाँ नमूनेके तौरपर न्यायतीर्थ, अध्यक्ष श्री दि० जैनमहापाठशाला, मरिणनीचे दी जाती हैं: हारोंका रास्ता, जयपुर । अनुवादक, पं० मिलापचन्द पद्य नं0 जी न्यायतीर्थ तथा प्रक शक, पं० श्रीप्रकाशजी शास्त्री, ७१ मोय रनाई (?) मन मो परनाई सेन मंत्री सद्बोधग्रन्थमाला' मणिहारोंका रास्ता, जयपुर १०५ दिन बीति धने दिन बीते घने सिटी। पृष्ठ संख्या १०० । मूल्य, छह आना। १६४ मारी ई र टोक मा रोई उर ठोक लेखकने प्रस्तुत पुस्तकम 'अनानि' आदि १४

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