Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 441
________________ ४१० अनेकान्त [वर्ष ५ णमो वचिबली ॥३६॥ णमो कायबलीणं ॥३७॥ णमो गाथाके अनन्तर लिखा हैखीरसवीणं ॥३॥ णमो सप्पिसवीणं ॥३॥ यमो महु- "एवं पोधिणाणावरणीयस्स कम्मस्स परूवणा सवीणं ॥४०॥ नमो अमइसवीणं ॥४१॥ णमो अक्खीण- कदा भवदि।" महाणासाणं ॥४२॥ णमो सम्वसिद्धापदणाणं ॥३॥ बादमें मनःपर्ययज्ञानावरणकी प्ररूपणा करते हुए णमो वहुमाणवुद्धि रेसिस्म ॥४४॥ कहा गया हैउपरोक्त मंगलाचरणमे गौतमस्वामीरचित " सूत्र हैं "उजुमदिणाणं 'मणेग माणसं पडिविदहत्ता है। कारण, 'मोजिणाण' इस प्रथम मंगलसूत्रकी टीकाके परेसिं सरणादी मदिचिंतादि विजाणदि ।” अन्त में तथा दूसरे सूत्रकी प्रारम्भिक भूमिकामें वीरसेन इसी भावको प्रारमसात करके अकलंकदेव इन शब्दोंमे स्वामी लिखते हैं--- व्यक्त करते हैं---"आगमे हक्त मनसा मनः परिच्छिद्य "एवं दवट्रियजणाणुग्गहणटुं णमोक्कारं गोदमा परेपां संज्ञादीन जानाति इति मनसाऽऽत्मनेत्यर्थः।" भडारओ महाकम्मपयडीपाहुडस्स आदिहि काऊरप पज्ज (राजवार्तिक पृ०५८) वट्ठियणयाणुग्गहणट्ठमुत्तरसुत्ताणि भणदि। “जीविदमरणं लाभालाभं सुहदुक्खं गगरविइससे यह विदित होता है कि 'महाकम्मपयडीपाहुड'के णासं देसविणासं जणपदविणासं अदिवुट्टि प्रणाप्रारंभमें गौतम स्वामीने द्रव्य र्थिक नयाश्रित अर्थात् सामान्य बुट्टि दुवुट्टि सुभिक्ख दुभिक्खं ग्वेमाखमं भयरोगं दृष्टिवाले जीवोंके अनुग्रह निमित्त सामान्य रूपसे जिनोंको उन्भमं इन्भमं संभमं वत्तमणाणं जीवाणं, णोवत्त , नमस्कार करके तदनन्तर 'जिणाणं' की विशेषता बतानेके मणाणं जीवाणं जाणादि । (महाबंध)" लिये पयायाथिक दृष्टि वालाके अनुग्रहाथ शेषसूत्राका रचना "तमात्मना आत्माववृध्यात्मनः परेषां च चिता की है। और इसपरसे यह परिणाम स्वत: निकल पाता है जीवितमरणसुखदुःखलाभालाभादीन विजानाति । कि ये मंगलसूत्र गौतमस्वामीके रचे हुए हैं, जिन्हें भूदबलि या व्यक्तमनसा जीवानामर्थं जानाति, नाव्यक्तमनसाम।" प्राचार्यने वेदनाखण्डकी प्रादिमे अपनाया है और इन्हें ही (राजवातिक पृ०५८) महाबन्धका भी मंगलाचरण समझना चाहिए। इससे ध्वनित होता है कि अकलकदेवर भी भूतबलि ग्रंथका अंतःपरीक्षण स्वामीका प्रभाव रहा है और वे महाबंधको भागम' शब्दसे ग्रंथका प्रथम पृष्ठ तो अनुपलब्ध है ही, उसके अनन्तर उल्लेखित करके ग्रंथकी पूज्यता तथा मान्यताको व्यककर रहे हैं। उपलब्ध महाधवलकी प्रथमपंक्ति इस प्रकार है-'अयणं- ग्रन्थमे मनःपर्ययज्ञानावरणका वर्णन करनेके अनन्तर संबच्छर-पलिदोवम-सागरावमादयो भवंति"। इसके केवल ज्ञानावरणकी प्ररूपणा करते हुए कहा गया हैअनंतर १६ गाथाश्रोमें अवधिज्ञान सम्बन्धी कांडकोका "जं तं केवलणाणावरणीयं कम्मं तं एयविधम् । वर्णन पाया है। प्रथम गाथा इस प्रकार है तस्स परूवणा कादवा भवदि । सयं भगवं उप्पण्णअंगुलमावलियाए भागमसंखेजदो वि संखेज्जा। णाणदरिसी सदेवासुरमणुसस्स लोगस्स अगदि गदि अंगुलमावलियंतो श्रावलियं अंगुलपुधत्तं॥ चयणोपवादं बंधं मोक्खं, इद्धि जुदि अणुभागं तक्क गोम्मटसार-जीवकाण्डमे यह गाथा नं०४०३पर उद्ध्त कलं (१) मणो मासिक भुत्तं कदं पडिसेविंद आदिकी गई है। इसी प्रकार अन्य गाथाएँ भी जीवकाण्डमें कम्मं अरहकम्मं सव्वलोगे सधजीवाणं सव्वभावे पाई जाती हैं। इन सोलह गाथाओंके सिवाय संपूर्ण ग्रंथमें समं मम्मं जाणदि।। पग्ररूप एक भी पंकि नहीं है। इन गाथाओं में की अंतिम एवं केवलणागणावरणायम्स कम्मस्स पावणा गाथा इस प्रकार है-- कदा भवदि।" परमोधिमसंखेज्जा लोगामेत्ताणि समयकालो दु। इसी प्रकार दर्शनावरण श्रादि कृतियाँकी रूकीर्तना रूवगद लभदि दव्वं खेत्तोवममगणिजीवहिं॥ की गई है। सर्वबंध नोसर्वबंध का श्रोध तथा श्रादेश

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