Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 442
________________ किरण १२] महाधवल अथवा महाबंधपर प्रकाश की अपेक्षा दो प्रकारसे निर्देश किया गया है-- संपरणदाए सीलवदेसु णिरदि-चारदाए प्राचासएसु अपरि"पोषेणारातराइगस्स पंच पगदीओ किं सव्वबंधो हीणदाए खणलवपडिबुज्मणदाए लडिस वेगसंपण्णदाए यो सबबंधो ? सम्वबंधो। सम्बाश्री पगदीश्री बंधमा- यथाछामे तथा तवे समणाण समाधिसंधारणदाए समणाणं णस्स सव्वबंधो। तदूण बधमाणस्स णोसनबंधो।" समाधिसंधारण दाएसमणाणं विजाववजोगयुतदाएसमणाणं इसके अनन्तर लिखा है--"यो सो जहरहबंधो पासुगपरिभागदाए परहंतभत्तीए बहुस्सुदभत्तीए पवयणअजहरहबंधो णाम तस्स इमो दुविहो णिद्दे सो प्रोघेण। भत्तीए पवयणवच्छल्लदाए पवयणपभावणदाण, अभिक्षणं श्रादेसेण य।" णाणोपयोगयुतदाए एदेहि सोलसेहि कारणेहि कारणेहि इसी प्रकार आगे लिखा है-- जीवोहिन्थयर णामागोदं कम्मबंधदि । जस्स इणं कम्मस्स उदजो सो सादियबंधो अणादियबंधो ४ । तस्स इमो येण सदेवासुरमाणुसस्स लोगस्स अञ्चणिजा पूजणिजा वंददुविहो णिदेसो प्रोघेण प्रादेसेण य । णिजा, णमंसणिजा धम्मतिस्थयरा केवलिणो भवंति ।" इस पर जो वर्णन किया गया है उसको गोम्मटसार यहाँ तीर्थकर प्रकृतिकी कारणभूत सोलह कारण भाकर्मकांडकी गाथा नं. १२४ में इस प्रकारसे बद्ध किया है- वनाओंकी गणना की गई है जो इस प्रकार हैं--दर्शन 'घादितिमिच्छकमाया भयतेजगुरुदुगणिमिणवण्णचनो। विशुद्धता, विनयसंपन्नता, शीलवतेषु निरतिचारता, श्रावसत्तेतालधुवाणं चदुधा मेमाण य तुदुधा। श्यकेषु अपरिहीनता, क्षणलवप्रतिबोधनता, लब्धिसंवेगमहायधका वर्णन देखिये--"श्रोषेण पंचणाणावरण । संपन्नता, यथाशक्तितप, माधुसमाधिसंधारणता, वैयावृश्यणवदंसणावरण मिच्छत्त सोलसफसाय भय दुर्गच्छा तेजा- योगयुक्तता, साधुपासुक परिचागसा, अर्हद्भक्ति, बहुश्रतभक्ति, कम्मदय वरण. ४ अगुरु. उप. निमिण पंचतराइया प्रवचनभक्ति, प्रवचनवन्सलता, प्रवचन प्रभावनता, कि सादि.४१ सादियबंधो वा०४।" अभीचणज्ञानो योगयुक्तता । इन मोलह कारणोंमे तीर्थकर "सादासादं सत्तणोकमाय चदु श्रायु, चदुगदि पंच- प्रकृतिका बंध होता है | जादि तिरिण मरीर छस्संठाण तिरिण अंगोवंग छस्संघडण यहाँ या विशेष बात ध्यान देनेकी है कि धवलाटीकामे जो चत्तारि आणुपुव्वि परघादुस्सास श्रादावुजोचं दो विहायदि पंडश कारणों के नाम गिनाए हैं. उनके क्रम मे तनिक नसादि दसयुगलं तिथयर योचुच्चागोदाण किं सादि०४ ? अन्तर है । यही न०८ पर माधुममाशिमंधाराता है, सादिय द्धवबंधो।" तो धवलामे साधु प्रासुक परिमागताका पाट है। नं.६ पर बंधसामित्तविचयमे बंध प्रबंध बंधव्युच्छित्तिका वर्णन वयावृत्य योग युक्तताके स्थानम 'माधुममाधिमंधारणता' किया गया है । यथा-- का पाट है। नं. १० मे साधु प्रासुगपरिचागताके स्थानम पचणाणावरणीय चदुदंसणावरणीय जसगित्ति उच्चा- यावृत्य योगयुक्तताका पाठ है । शेष पाठ समान है गोद-पंचनंतराइगाणं को बंधगो अबंधगो ? मिच्छादिट्टि- कवल साधु प्रासुकपरिचागताके स्थानमे धवलामे साधु 'पहुडि याव सुहुमसापराय सुद्धि संजदा तिबधा । सुहुम- प्रामुक परित्यागता लिवा है । तत्वार्थसूत्रम संवेग, मारपापराहय सुद्धि संजददवाए चरिम समयं गंतूण बंधो ममाधि, शक्तितस्त्याग, मार्गप्रभावनाका पाट है उनके वोरिछजदि । गदे बंधा, अवसेसा प्रबंधा।" स्थानमे पहा क्रमश: लब्धिमंवेगमपन्नता, माधुममाधिमंधागोमट्टमार कर्मकाण्डकी गाथा १०१ के उनरार्धमें इस रणता, प्रामुकपरिचागता, प्रवचनप्रभावनताका पाट है। विषयको निम्न प्रकार संक्षिप्त किया गया है-- प्राचार्यभक्तिका महाधवल मे पाठ नही पाया है. किन्तु पढमं विग्धं दसण चउ जस उच्चं च सुहमने।" उसके स्थानम एक नवीन भावना और है, जिसका नाम है इसी प्रकार अन्य प्रकृतियों के बंधादिके बारेमे जानना 'क्षणलवप्रतिबोधनना' । इसका अर्थ यह है--'क्षणलव' चाहिये। आगे तीर्थकरप्रकृतिके बंधके कारणों पर इस काल के द्योतक हैं। उम विशेष कानमे मापदर्शन ज्ञान प्रकार प्रकाश डाला गया है--'दंपण विसुज्झदाए विणय- व्रत-शील-गुणोका उज्वल करना, कलंककाप्रक्षालन करना

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