Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 444
________________ किरण १२] महाधवल अथवा महाबन्ध पर प्रकाश ४१३ सम्वद्धा । दोरणं बंधा बंधगा केवचिरं कालादो होति ? भेंट किया था। मलिकन्वा देवीको 'वनितारन, रूपवती', सम्बद्धा । एवं सेसाणं पगदीणं वेदणीयभंगो ।" 'शील निधान', 'जिनेन्द्रचरणभ्रमर' तथा 'अनुपम गुणोंका अंतरानुगमका । पृष्ठोंमे वर्णन है:--'प्रादेलेय रहगेसु भडार' कहा गया है। दो प्रायुब्बंधगा जहरणेण एगसमत्रो, उक्कस्सेण चउ- माघनंदि मुनिपति सिद्धान्तशास्त्रोंके पारंगत विद्वान् ब्बीसं मुहुत्तं, अदालीसमुहुतं, पक्वं, मासं, बेमासं, थे। वे सिद्धान्त-सिंधुकी वृद्धि करनेको चंद्रमाके समान थे, चत्तारिमासं, छम्मासं, बारसमासं । एवं सब्बणेरडगाणं। गुप्तित्रय भूषित थे, शल्यहित थे एवं कामविजेता थे। उन सेमपगढीणं णस्थि अंतरं।" | के करकमलोंमे महाबधकी प्रति समर्पित की गई थी। भावानुगमका वर्णन १७ पृष्ठोंमें है। यथा ___आचार्य माघनंदिके सिवाय गुणभद्रसूरिका उल्लेख 'थीण गिद्धितिग बारस कसा बंधगा त्तिको भावी? आता है। वे उज्वलचरिन थे और कामरूपी मत्तगजके प्रबंधगा त्ति को भावो ? उवमिगी वा खइगो वा ख कुंभस्थलको विदीर्ण करनेमें उत्सुकमृगेन्द्र तुल्य थे । योवसमिगो वा।" मेघद्र व्रतिपतिका भी वर्णन है। आगे १०३ पेजोमे अल्पबहुत्वका वर्णन है। उसमे प्राचार्य माधनंदि, मेघचंद्र तथा गुणभद्रसूरि कब हुए. स्वस्थान-जीव-अल्पबहुःख, परस्थान-जीव अल्पबहुग्व, स्व. इनका क्या सम्बन्ध था प्रादि बातोपर प्रशस्तिमे कोई स्थान-अन्द्रा-अल्पबहत्व परस्थान-प्रदा-अरूपबहत्वका प्रति- प्रकाश नहा पड़ता। पादन विस्तारपूर्वक किया गया है । नमूना इस प्रकार है मलिकम्वा देवीके पति राजा 'मन' को विनयवान, ___ "सम्वत्थोवा सादामादा दोरणं पगीयं प्रबंधगा शीलवान, गुणोका निधान, सहज तथा उन्नतबुद्धिशाली जीवा । मादबंधगा जीवा अणंतगुणा। प्रसादबधगा जीवा कहा गया है। इनके विषयम और ऐतिहासिक सामग्री सखेजगुणा । दोरणं बंधगा जीवा विसंसाहिया।" ग्रथकी इस दानप्रशस्तिमे नहीं प्राप्त हो मकी "सवयोवा मगुसायुबंधगा जीवा । शिरयायुबंधगा प्रशस्तिके पाठसे यह बात हृदयमे आनन्द उत्पन्ना जीवा असंखेजगुणा। देवायुबंधगा जीवा असंखेजगुणा। करती है कि, जिनवाणी माताके श्रमक ग्रन्थरत्नका उद्धार तिरिक्वायु- बंधगा जीवा अणनगुणा। चदुए श्रायुगाए कर रक्षा करनेका पुण्यमय अनुपम सौभाग्य महिलारत्न बंधगा जीवा विमेसाहिया। प्रबंधगा जीवा संखेज्जगणा। जैन राजमाता मल्लिकब्बा देवीको प्राप्त हुश्रा । इससे यह ज्ञात होता है कि पुरातनकाल में बडे २ ___इस प्रकृतिबधके वर्णन करनेवाले अंशकी अंतिम नरेश, महारानी आदिका मुकाव शास्त्रोंक उद्धारकी ओर पनियां इस प्रकार हैं-- कितना अधिक था। लोगोका ज्ञानको उच्च पाराधना की सुक्क ले० प्राणदभंगी । सम्मादिट्टी. वइग. ओर झुकाव था, इसी कारण सरस्वती मानाकी जगतमे वेदग. उवसम. श्रोधिशाणिभंगो । पवरि उवसम० खूब प्रतिष्ठा थी। श्राज श्रुत-सेवाकी ओर हमारा उचित आयुगाणंणाथि अप्पाबहुगं। आहाराणुवादेश प्राहारमूलोघं । लक्ष्य न हानेका यह परिणाम है कि, उच्च ज्ञान के क्षेत्रमे अगाहाग कम्मद का जोगिभगो । एवं परस्थाया श्रद्धा अप्पा हमारा पहलेके समान उन्नत स्थान नहीं है। बहुगं ममत्तं । एवं पगदिबंधी समतो।" आम जो महाबंधकी रक्षा हुई उसका श्रेय ललनारग्न प्रशस्ति-प्रकृतिबंधके अंतमे कोई प्रशस्ति नही है। मलिकव्वा देवीकी मामयिक तथा अपूर्व वदान्यताको है। स्थितिबंध, अनुभागबंध तथा प्रदेशबंधके अंत में जो प्रशस्तियों ग्रंथराजकी प्रतिलिपि करनेका कार्य मादित्य नामक हैं उनपे यह ज्ञात होता है कि प्रस्तुत ग्रथका नाम महाबंध महानुभावने किया था। मुडबिद्रीम जो ताइपत्रकी प्रति है। ग्रंथकर्ताका नाम इसमे नहीं दिया गया है। सेनगजाकी विद्यमान है, वह एक हजार वर्षके करीब प्राचीन है। धर्मपत्नी महिलारत्न मल्लिकचा देवीने अपने पंचमीव्रतके अब प्रशस्तिके पचोको देखिए जो संस्कृत तथा काड उद्यापनमे यह ग्रंथ नकल करवाकर माघनंदि यतीन्द्र को दोनोंमे हे :

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