Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 427
________________ ३६६ अनेकान्त [वर्ष ५ शाखाओं और कुलों के नाम दिये गये हैं। पुरातत्वकी भावकश्रेष्ठीका सुन्दर विवरण पाया जाता है । यह अद्भत साक्षी है कि उन गण-शाखा-कुलोके संग- तत्कालीन शासक और प्रतिलिपिकारके विषयमें भी ठनका यथार्थ-परिचय कंकाली टीला मथुरासे मिले सूचमाएँ मिलती हैं । इतिहासके साथ भूगोलकी हुए पहली-दूसरी सदीके प्रतिमालेखोस प्राप्त होता है। सामग्री भी पाई जाती है। मध्यकालीन जैनाचायों मथुरा उस समय उत्तरी भारतमें जैनधर्म और संघ के पारस्परिक विद्या-सम्बन्ध. गच्छके साथ उनका का प्रमुख केन्द्र था। वहांका शक्तिशाली संघ समस्त सम्बन्ध, कार्यक्षेत्रका विस्तार, ज्ञानप्रसार के लिये उद्योग उत्तरापथमें प्रख्यात था । कल्पसूत्रम दिये हुए अधि- आदि विपयो पर इन प्रशस्ति और पुष्पिकाओंसे कांश नाम ज्यो के त्यो कंकाली टोलक गण-शाखा- पर्याप्त मामग्री मिल सकती है। श्रावकोंकी जातियों के कुलों में मिल जाते हैं। डा. बृलहरने 'इंडियन संक्ट निकास और विकास पर भी रोचक प्रकाश पड़ता है। आफ दी जैनम' पुस्तकमें इसका तुलनात्मक विवेचन अभी तक जैनपुस्तक प्रशस्ति-संग्रह प्रथमभाग' प्रकाकिया है। संघका वह प्रान्तीय संगठन कालान्तरमे शित हो चुका है। और भी वृद्धि को प्राप्त हुआ होगा। इसके प्रमाण मध्यकालीन जैन आचायोकी गुरुपरम्परा एवं गच्छोकी ५. प्रातमालखसंग्रहविविध पदावलियों को देखने मिलते हैं। श्री दर्शन- संघीयइतिहासका दमग माधन प्रतिविजयजीन पट्टावलीसमुच्चय नामक संग्रहमे इस माओं पर खुदे हुए लेख हैं। पुरातत्वस मम्बम्ध होने प्रकारको कई सूचियोका बहुत उपयोगी संकलन किया के कारण यह सामग्री अत्यधिक विश्वनीय मानी जाती जीवनयी पारळ-पटावलीका है। किसी भी पुराने जैन मंदिर में हम जायं इस प्रकार प्रकाशन किया है। जिस प्रकार ब्राह्मण और उपनि- के लेखोंका अस्तित्व हमें मिलेगा । हस्तलिखितग्रन्थों में षदोके समयमे अध्येता लोग ब्रह्मास लेकर 'अस्माभि- जो स्थान पुष्पिकाओंका है वही मूर्तियोंपर प्रतिमारधीतम तकके विद्या वंशका स्मरण किया करते थे लेखोंका है। लगभग उसी प्रकारकी भापामें वेमी ही ( जिनमस कई सूचियां अभी तक उपलब्ध हैं ) उसी मूचना मिलती हैं। अभी देवगढ़के प्राचीन जिना प्रकार जैन लोग भी समण भगवान महावीरस आ- लयोंमें जो बिम्ब हैं उनपर कितने ही इसप्रकारक रम्भ करके उनके गण ओर गणधरोकी परम्पराका लख हमारे देखने में आए हैं। इसप्रकारके लेखोंका स्मरण करते हुए कालान्तरके आचार्योकी गुरु- मंग्रह श्रीपूर्णचन्द्रजी नाहरने छपाया था परन्तु शिष्यशृंखलाक द्वारा अपने विद्यावंशका पूरा ब्योग कार्य बहुत विस्तृत है और उसकी प्रगति आग बढ़नी रखते थे। मध्यकालीन जेनसंघमें जो अनेक विद्वान चाहिये। हा उनका पूरा विवरण यदि इन पट्टावलियां में ६. विज्ञप्तिपत्रमम्मिलित किया जाय तो संघका अच्छा इतिहाम तैयार हो सकता है। विज्ञप्तिपत्र कुंडलीके आकारक उम आमंत्रणपत्र की संज्ञा है जिस स्थानीय जैनसमाज भाद्रपद में ४. प्रशस्तिसंग्रह पर्युपरणापर्व के अन्तिमदिन अपने दूरवर्ती प्राचार्य या गुरु-शिष्य-परम्पराके इतिहासके दो उत्तम साधन गुरुके पास भेजता था । उसमें स्थानीयमंघके पुण्य हैं। पहला तो हस्तलिग्वितग्रंथोंके आदिमें दी हुई कार्योंके वर्णनके साथ गुरुके चरणों में यह प्रार्थना प्रशस्तियाँ और अन्त में दी हुई पुप्पिकाएँ हैं। रहती थी कि वे अगला चातुर्माम्य उस स्थानपर आकर इनमें ग्रन्थलेखनकी प्रेरणा देने वाले जैनगुरुका, बिनाये। विज्ञप्तियों का जन्म गुजरातमें हुआ और जैनेउनके शिष्यका और ग्रन्थलेखनका मूल्य देने वाले तर समाज में इनका अभाव है। पहले विज्ञप्तिपत्र सामान्य

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