Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 433
________________ ४०२ अनेकान्त [वष ५ जाते हैं । इनका वरदहाथ साधुस्वभाव और नूतनसाहि- अन्तरात्मा, निर्मल मति, मिद्धन्तरूपी रसायन त्यप्रेम ये तीनों ही बातें ग्रन्थों के निर्माणकार्य में विशेष के रसिक और मुनियों के भक्त जैसे विशेषणोंके द्वारा सहायक हुई हैं। जान पड़ता है उम समय माहू इनका खला यशोगान किया गया है* इम सबका क्षेमराज, और इनके भाई होलू एवं कुटुम्वीजन बड़े कारण इनकी धर्मनिष्ठता, उदारता आदि म्द्गु ण हैं। ही धर्मात्मा और परोपकारी सज्जन थे। ये अग्रवाल पंडित रइधू काठामघके माथुगन्वय और पुष्करजातिके प्रसिद्ध वणिक थे, दि. जैनधर्म के अनुयायी गणके भट्रारक यशःकीतिक शिष्य तथा भ० गुण थे. विद्वानोंका आदर-सत्कार करना और उनकी कार्तिके शिष्य थे। इन भटारकोंकी गही गोपाचल आवश्यकताओंकी यथेष्ट पूति करना अपना परम (ग्वालियर) में था। कविवर महाचन्द्रने अग्ने शान्तिकर्तव्य समझते थे। ग्रन्थकर्ताने स्वयं पार्श्वपुराण के नाथ चरित्र में जिसका रचनाकाल वि० सं० १५८७ निम्न पद्यों में इनका कुछ परिचय दिया है जो इस है, पुष्पदन्तादि महावियोक माथ पंडित रइधूका प्रकार है: भी म्मरण किया है। सिरि-डुंगरसीह णरेद-रजि, कविवर रइधूका ग्रन्थरचनाकाल यद्यपि उनकी वणिवह णिवसइ पुणु बहुदुमजि । खुदकी कुछ अन्यप्रशस्तियों में जो अभी तक देखने में दुक्खिय-जण-पोसणु गुणणिहाणु , आई हैं, उपलब्ध नहीं होना । संभव है कि अन्य जो भयरवालकुल-कमल-भाणु । किन्ही ग्रन्थोकी प्रशस्तियों में वह मिल जाय । परन्तु मिच्छत्तवसण-वासण-विरत्तु , इनकी समस्त रचना ग्वालियरके तोमरवंशी राजा जिणसत्थ-णिग्गहँ पाय-भत्त । डुंगरमिह और उनके पुत्र कीर्तिसिंहके राज्यकालमे सिरिसाहु पहूणु जि पहसियामु , हुई जान पड़ती है। इनके पाश्च पुगणनामक ग्रन्थकी तुहु णंदणु णिरुवमगुणणिवासु । एक प्रति वि०सं०१५४६ के चैत्रशुक्ला एकादशी शुक्रसिरि-खेमसीहु णामेण साहु , वारके दिन पुनर्वसुनक्षत्रम हिमारके महावीर चैत्यालय जिणधम्मोवरि जें बद्धगाहु। में, सुलतानशाह सिकंदरक गज्यकालमें लिग्बी गई है जिणचरणोदण्ण वि जो पवित्तु , और वह रचनामे कुछ वर्ष बादकी ही प्रतिलिपि प्रायम-रस-रत्तउ जासु चित्त । जान पड़ती है। सम्मत्तरयणलंकिय सरीरु, *. य. सिद्वान्तरमायने कसको भक्तो मुनीना मदा, कणयायलुब्व णिक्कंपु धीर । दानेनैव चतुर्विधन निधिना मंघस्य सपोषक:। इन पद्योंमें बतलाया गया है कि माह खेमसिह ____ जानत्येव विशुद्धनिर्मलमनिटेहात्मनोरंतरं, का निवाम गोपाचलके तोमरवंशी राजा दूंगरसिंहके मो श्री नंदतु नदन: सममही क्षेमाघमाधु:क्षितौ ॥१॥ राज्यमें था । ये दुखीजनों के पोपक, गुणनिधान, -पार्श्वपगण मंधि १ अग्रवाल कुलकमलदिवाकर, मिथ्यात्व और व्यसना- भार व्यसना- +देखो, 'अपभ्रंशभाषाका शातिनाथचरित्र' नामका मेग तो टिकसे विरक्त, जिनशास्त्र और निग्रंथ गुरुओंक लेग्न, अनेकान्त वर्ष ५, करगा ६-७ पृ० २५३ । परमभक्त, साहू पहणु अथवा पजगणके पुत्र थे अनुपम xuथ मंबारे ऽस्मिन् नृपश्रीविक्रमादित्यगज्ये १५४६ गुणोंके धारक थे, जिन धर्मके उपासक, जिनागमके, वर्षे चैत्र मुदि ११ शुक्रवारे पुनर्वसुनक्षत्रे शुभनाम जोंगे रसिक तथा सम्यक्त्वरूपी ग्लम अलंकृत थे । और श्री हिसार पराजा मोटे १ श्री महावीर चैत्यालये मुलतान ममेरुपर्वतके समान निकंप,धीर तथा धन-करण-कचन मा (शा) दि (६) मिकदरगाप्रपर्तमाने। श्री काठासे समृद्ध थे। साथ ही चारप्रकार के दान द्वारा संघ सं माथुगन्वये पुष्कर गणे ॥" संपोषक, देह और आत्माके अन्तरको जानने वाले --पाश्व पुराण लेखक प्रशस्ति

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