Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 423
________________ ३१२ अनेकान्त । वर्ष ५ अर्थात-कपिलमतके खंडनसे ही प्रयुक्त, अश्लील पदार्थोंके सद् और असद् रूप वस्तुस्वरूपका खंडनके लिये और पाकुल जो किंभित्' का प्रलाप-कथन है वह खंडित ही प्रयुक्त किये गये जान पड़ते हैं। क्योंकि धर्मकीर्तिने उक्त होगया, क्योंकि वह भी एकान्त संभावित है।' खडन जैनदर्शन-सम्मत उभयात्मकताका किया है और जैन यहां धर्मकीर्तिने स्पष्टतया समन्तभद्रके सर्वथा एकान्त परम्परामें समन्तभद्रके पहिले तार्किकरूपसे उभयात्मकता के त्यागपूर्वक किंचित्के विधानरूप' स्याद्वादका खंडन किया का प्रतिपादन देखने में नहीं पाता। अतः समन्तभद्र धर्महै। समन्तभद्रके पहिले जैनदर्शनमै स्याद्वादका इस प्रकार कीर्तिके उत्तरकालीन किसी भी प्रकार सिद्ध नहीं होते। से लक्षण उपलब्ध नहीं होता। समन्तभद्रके पूर्ववर्ती यहां यह बात स्वास तौरसे नोट किये जानेकी है प्राचार्य कुन्दकुन्दने सप्तभंगोंके नामतो निर्देश किये हैं कि धर्मकीतिक इन दोनों भाक्षेपोंका जवाब प्रकपरन्तु स्यादादकी उन्होंने कोई परिभाषा नहीं बांधी। यहीं लंकदेवने न्यायविनिश्चयमे दिया है। यदि समधर्मकीर्तिके द्वारा खडनमें प्रयुक्त 'तदप्येकान्तसंभवात् तभद्र धर्मकीतिके उत्तरकालीन या समकालीन होते पद भी खास तौरसे ध्यान देने योग्य है जिससे साफ तो वे निश्चय ही धर्मकीतिके इन आरोपोंका जवाब देते ध्वनित होता है कि उनके सामने 'एकान्तके त्यागरूप और ऐसी हालतमें अकलंकको इनका जवाब देनेका अवसर अनेकान्त लक्षणकी वह मान्यता रही है जो 'किंचित् के ही न मिलता। इससे स्पष्ट है कि समन्तभद्र धर्मकातिके विधान द्वारा व्यत्सकी जाती थी तथा जिसका ही खंडन बहुत पहिले हो चुके हैं। और ऐसी दशामे धर्मकीर्तिके उन्होंने 'वह भी एकान्त संमवित हैं जैसे शब्दों द्वारा अन्धोम पाया जाने वाला विचार और शब्दका साम्य किया है। अनुसन्धान करनेपर यही मालूम होता है कि ममन्तभद्रका ही प्रामारी जान पड़ता है। वह मान्यता समन्तभद्रीय ही है, क्योंकि समन्तभदने ही इस प्रकार जोसमन्तभद्र ऊपर दिग्नागके पूर्ववर्ती सिद्ध सर्वप्रथम जैनपरंपरामे सर्वथा एकान्तके त्यागरूप अनेकान्त किये गये हैं वे भर्तृहरि. कुमारिल और धर्मकीर्ति के भी को स्यादाद माना है और उसकी रूपरेखा 'किंचित् के पूर्ववर्ती हैं इसमे कोई सन्देह नहीं रहता । और इसलिये प्रयोग-द्वारा प्रकट की है, और इसलिये यह निःसन्देह है इसविषयमें जिनविद्वानोंकी किसी समय कोई विपरीत धारणा कि समन्तभद्र धर्मकीतिके पूर्ववर्ती विद्वान थे। बन गई है वे इस लेखपरसे या तो उसे सुधारनेमें प्रवृत्त ___ इसके सिवाय, समन्तभद्राने 'सदेव सर्व को नेच्छेन होंगे और या इस विषयपर कोई विशेष प्रकाश डालनेकी इत्यादि कारिका के द्वारा सब पदार्थोंको सद् और अपद कृपा करेगे. ऐसी दृढ प्राशा है। दोनो रूप माना है अर्थात उन्होंने यह बतलाया है कि वीरसेवामन्दिर, सरसावा 'विश्वके सब ही पदार्थ सत और असन् उभयरूप हैं। , यथा :समन्तभद्रके इस कथनकी भी धर्मकीर्ति आलोचना करने "जात्या विज्ञप्तिमात्रं परमपि च बहिर्भासिभावप्रयादम् , हुए लिखते हैं-- चके लोकानरोधात् पनरपि सकलं नेति तत्त्वं प्रपेदे। सर्वस्योभयम्पत्वे तद्विशषनिराकृतः। न ज्ञाता तस्य तस्मिन् नच फलमपरं ज्ञायते नापि किञ्चित् चोदिनो दधि खादेति किमुष्ट नाभिधावति ॥ इत्यश्लील प्रमत्तः प्रलपति जडधीराकुलं व्याकुलाप्तः ॥ १७० सर्वात्मत्वे च सर्वेषां भिन्नो स्यातां न धीध्वनी "तत्र मिथ्योत्तरं जानिर्यथानेकान्तविद्विषाम् । भेदसंभारवादस्य तदभावादसंभवः दच्युप्रादेरभेदत्वप्रसंगादेकचादनम् । -प्रमाणवा०१-१३, १८५ पूर्वपक्षमविज्ञाय दूषको-पि विदूषकः ॥” ३७१-७२ यहां 'सर्वस्योभयरूपत्वं' और 'सर्वामित्वे च सर्वेषां ये मुगतोऽपि मृगो जातः मृगोऽपि सुगतः स्मृतः। पद ध्यान देनेयोग्य है. जो समन्तभद्र के द्वारा प्रतिपादित 'यब तथापि मुगती बंद्यो मृग: खाद्यो यथेष्यते । १ सदेव सर्व को नेच्छेन्स्वरूपादि चतुष्टयात् । नया वस्तुबलादेव भेदाभेदव्यवस्थितः । असदेव विपर्यासान्न चेत्र न व्यवतिष्ठते ।।१५।। अाप्रमी चोदितो दधि स्वादेति किमुष्टमभिधावति ।। ३७३.७४

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