Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 414
________________ समन्तभद्र और दिग्नागमें पूर्ववर्ती कौन ? ( लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन, कोठिया ) X -X मन्तभद्र और दिग्नाग दोनों ही दो जुदे अनेक शिलालेखोंमें भी समन्तभद्रको पूज्यपादके पूर्वका जुदे धर्म-सम्प्रदायोंके प्रधान श्राचार्य हो विद्वान् बतलाया है। दूसरे, स्वयं पूज्यपादने अपने जैनेन्द्र गये हैं-ममन्तभद्र जैन सम्प्रदायके और व्याकरण' के 'चतुष्टयं समन्तभद्रस्य' (५-४-१६८) x -x दिग्नाग बौद्ध सम्प्रदायके प्रमुख तार्किक इस सूत्रमे समन्तभद्रके मतका उल्लेख किया है। तीसरे, बिद्वानोंमेंसे हैं। जो सम्मान और प्रतिष्ठा जैनसमाजमें पूज्यपादके साहित्यपर समन्तभद्रके प्रयोका स्पष्ट प्रभाव स्वामी समन्तभद्को प्राप्त है संभवत: वही सम्मान और पाया जाता है। इस विषय में मुख्तारश्री पं० जुगलकिशोर प्रतिष्ठा बौद्धसमाजमे श्राचार्य दिग्नागको उपलब्ध है। जीका 'सर्वार्थ सिद्धिपर समन्तभद्रका प्रभाव' शीर्षक लेख दोनों ही अपने अपने दर्शनशास्त्रके प्रभावक विद्वानोमें बहुत ही अच्छे स्पष्टीकरणको लिये हुए है। अग्रगण्य है। दिग्नागका समय प्रायः ईमाकी ४ थी और अब प्रस्तुत विचार यह है कि स्वामी समन्तभद्र जो ५ वी शताब्दी (३४५-४२५ A D ) ' माना जाता पूज्यपादके पूर्ववर्ती हैं वे प्राचार्य दिग्नागके भी पूर्ववर्ती हैं या है, जब कि समन्तभद्रके समय-मम्बन्धमे जैनसमाजकी कि नहीं; क्योकि दिग्नाग और पूज्यपाद के समयमें जो थोड़ा मान्यता प्रामतौर पर दूसरी शताब्दी (शक सं०६०) अन्तर जान पड़ता है उस परसे दिग्नाग पूज्यपादके पूर्वकी है । यद्यपि इस मान्यतामे कुछ समयसे थोड़ा सा वर्ती मालूम होते हैं । इस विषयमें समन्तभद्र और विवाद उपस्थित है, फिर भी इतना तो सुनिश्रित है कि दिग्नागके साहित्यका अन्तःपरीक्षण करके, 'जो सत्यके स्वामी समन्तभद् पूज्यपादाचार्यसे. जिनका समय अनेक अधिक निकट पहुंचनेका प्रशस्त मार्ग है'. मैंने जो कुछ प्रमाण के श्राधारपर आमतौरपर ईमाकी पाँचवी शताब्दी अनुसन्धान एवं निर्णय किया है उसे मैं आज यहाँ अपने माना जाता है, पश्चाद्वर्ती नहीं हैं. किन्तु उनमे अथवा उनकी पाठकोंके सामने रखता हूँ :-- ग्रन्थ-रचनाके प्रारम्भये, जिसका अनुमानकाल ई. सन् । (१) बौदर्शनका प्रत्यक्ष-लक्षण प्राय: सभी बौद्ध४५० (A. D. ) के लगभग जान पड़ता है.४ पहले हो तार्किको और इतर दार्शनिकोंके विचारकी वस्नु रहा है। गये हैं। क्योंकि पट्टावलियोंके अतिरिक्त श्रवणबेलगोलके । वौद्ध दर्शनमे ही प्रत्यक्षका प्रारंभिक लक्षण उत्तरोत्तर १देखो, तत्वमंग्रहकी अंग्रेजी भूमिका पृ०७३ LXXIII कितने ही संशोधन एवं परिवतनको लिये हुए है। किन्तु तथा वादन्यायके परिशिष्ट A. और ः। इतना स्पष्ट है कि दिग्नागके पहिले भी बौद्ध-परंपराका २ देखी, पट्टावली' जो हस्तलिखित संस्कृत ग्रन्थोके अनु प्रत्यक्ष निर्विकल्पक', 'अकल्पक' या 'प्रत्यक्षबुद्धि' के सन्धान-विषयक डा.भाण्डारकरकी सन १८८३.८४ की १ देखो, अनेकान्त वर्ष ५ कि० १०-११ पृ० ३४५-३५२। रिपोर्ट में प. ३२० पर प्रकाशित हुई है, तथा कर्णाटक- २ (क) निविकल्पं यदि जान वस्त्वस्तीति न युज्यते । भाषाभूषण में बी० लेविस राइम की अंग्रेजी प्रस्तावना। यस्माचित्त न रूपाणि निविकल्पं हितेन तत् ॥ ३ देग्यो, 'स्वामी ममन्तभद्र' पृ०१४१ १४ । पृज्यपादके -लंकावतार सूत्र, मगायक ११२ शिष्य व नन्दीने वि० सं० ५२६ (ई० मन् ४६६) मे (ख) मयाऽन्यैश्च ताथागतेनुगम्य यथावहशितं प्रज्ञप्तं विवृतद्राविसंघकी स्थापना की है (दर्शनसार गा०२४-२८)। मुत्तानीकृतं । यत्रानुगम्य मम्यगवबोधानुच्छेदाशाश्वतो ४ देखो, 'स्वामी समन्तभद्र' पृ० १४३ । विकल्पस्याप्रवृत्ति: स्वप्रत्यात्मायंज्ञानानुकूलं तीर्थव रपक्ष

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