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किरण ११]
समन्तभद्र और दिग्नाममें पूर्ववर्ती कौन ?
यहां रेखाङ्कन पद खासतौरसे ध्यान देने योग्य है, से पहिले हो चुके थे। यही कारण है कि समन्तभद्र जिसके द्वारा कहा गया है कि यदि 'प्रज्ञाननाश' को और दिग्नागके उत्तरवर्ती प्राप्तमीमांसाके न्याख्याकार प्रणाणका फल नहीं मानोगे तो जिस संनिकर्षका खंडन प्रकलकने सर्वप्रथम जैन-परम्परामें इस गुस्थीको करते हो उसमें और तुम्हारे निर्वि दर्शन-'कल्पनाप्रोढप्रत्यक्ष' सुलझाया और प्रमाण तथा फलके भेदाभेदके में कोई अन्तर नही रहता, क्योंकि दोनों ही विसंवादकताके सम्बन्धमें जैनदृष्टिकोणको स्पष्ट किया। समन्तभद्रके अव्यावर्तक हैं । और अविमवादी ज्ञान प्रमाण माना जाता समयमे ऐसी कोई गुत्थी उपस्थित नहीं थी, इसीसे समन्तहै। इससे भी साफ जाहिर है कि उन दिग्नागकृत खंडन भद्रको सामान्य भेदाभेदका अनेकान्तदृष्टिसे स्पष्टीकरण समन्तभद्रकी मान्यतासे ही सम्बन्ध रखता है, जिसका करते हुए और प्रमाण तथा फलकी व्यवस्था करते हुए भी समुचित उत्तर उनके उत्तरवर्ती अकलंकदेवने दिया है। उस गुग्थीको सुलझानेकी जरूरत पैदा नहीं हुई। दूसरे (३) दिग्नागने 'प्रमाणसमुच्चय' गत हवीं कारिकाकी वृसमे शब्दोंमें यो कहिये कि स्वामी समन्तभद्र तब हुए हैं जब प्रमाण और प्रमाण-फल के अभेदका प्रतिपादन एवं भेदका प्रमाण और फल के सम्बन्धमे भेदाभेद-विषयक दो मत थे खंडन निम्न प्रकारसे किया है
ही नहीं। "अत्र यथा बाह्यानां प्रमाणात्फलमर्थान्तरं तथा ऊपरके इस सम्पूर्ण विवेचन एवं साहित्यिक परीक्षण नास्ति । फल भूतं विषयाकारमुलायमानं (ज्ञान) मव्या- परसे यह बिल्कुल स्पष्ट है कि समन्तभद्र दिग्नागके पूर्ववर्ती पारं प्रतीयते।"
हैं-उत्तरवर्ती नहीं। और जब समन्तभद्र दिग्नागके पूर्व___ अर्थात बाह्या बौद्धतरोंके यहां जिम प्रकार प्रमाणसे वर्ती सिद्ध हो जाते हैं तब इसमें कोई सन्देह नहीं रहता फल भिन्न है वैमा यहां (बौद्धोके) नहीं है।
कि वे भर्तृहरि, कुमारिल और धर्मकीर्ति के भी पूर्ववर्ती हैं: यहां प्रमाण और फलके भेदका खंडन किया गया है क्योंकि ये तीनों ही थोडे थोडेसे भागे पीछेके समयको और प्रकारान्तरसे अभेदका प्रस्ताव किया है। दिग्नागके लिये हए ईमाकी ७वीं शताब्दीके विद्वान है और निर्विवाद पहिले वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक सभीके यहां प्रमाणसे रूपमे दिग्नागके उत्तरवर्ती प्रसिद्ध हैं। फिर भी इन प्राचार्यों फल मामान्यतया अलग स्वीकार तो किया जाता था परन्तु से समन्तभद्रके पूर्ववर्तिवमें कोई सन्देह न रहे अत: इन वैया पक्ष या मन्तव्यका उल्लेख नहीं होता था। दिग्नागके प्राचार्योंके साथ भी समन्तभद्रका विचार किया जाता हैफन और प्रमाणके अर्थान्तस्य ग्बंडनमेंसे ही दो पक्ष
समन्तभद्र और भर्तृहरिप्रकट हुए जान पड़ते हैं अर्थात जब दिग्नागने अर्थान्तरताका
भर्तृहरि शब्दाद्वैतवाद' के प्रतिष्ठाता और 'स्फोटचाद' ग्वंटन किया तब उसमें से अनर्थान्तरता फलित हुई। इस
के पुरस्कर्ता माने जाते हैं। इनका तार्किकशैलीसे रचा गया नरह प्रमाण और फलके सम्बन्धमें भेद अभेदके दो पक्ष स्थिर हो गये। कुछ भी हो, अभेद पक्षके तो जन्मदाता
'वाक्यपदीय' नामका व्याकरण-ग्रन्थ अतिप्रसिद्ध है। भर्तृहरि दिग्नाग ही हैं। यदि समन्तभद्र दिग्नागके उत्तरवर्ती होते तो
के उत्तरवर्ती कुमारिल', धर्मकीति२. अक्लंक' विद्यानन्द
श्रादि ताकिकोंने इनके शब्दाद्वैत और स्फोटवादका खंडन व इस प्रमाण और फल-विषयक भेदाभेदके सम्बन्धमे
कंधेसे कंधा भिहाकर बडे जोरोंके साथ किया है। यदि जैन ष्टिकोण को दार्शनिकोंके मामने रग्बे बिना न रहते। . कोई वजह नही कि समन्तभद्र भाव अभाव, निन्य अनित्य १ "करणस्य क्रियायाश्च कथं च देकत्वं प्रदीपन मोविगमवत । प्रादि अनेक मुहोकी तो चर्चा करें और प्रमाण तथा फलके नानात्वं च परश्वादिवत् ।" -अष्टशती,ग्रामीका०१०२ भेदाभेदविषयक मुदं को यों ही छोड़ दें। इससे यह स्पष्ट १ मीमामा-श्लोकवार्तिक स्फोटबाद । मालूम होता है कि ममन्तभद्रका अस्तित्व उस समयका है २ प्रमाणवातिक ( ३-२५१ से )। जब प्रमाण और फलके सम्बन्ध भेदाभेदकी चर्चाका ३ गजवातिक पृ० २३१ । प्रवेश ही नहीं हुअा था-वे इस चर्चा के पुरस्कर्ता दिग्नाग ४ अष्टमहस्री पृ० २८५, श्लोकवातिक पृ० २४१