Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 407
________________ ३८० अनेकान्त { वर्ष ५ तथा अनुरोधित भी किया है, तब तो उनके वे लेखादिक प्यते ।" -श्लोकवा० पृ० २३६ भी उस प्रोपेगेगडेकी कोटिमें भाजायँगे। क्या शास्त्रीजी इसके सिवाय, शास्त्रीजीने जो यह उपदेश दिया है उन्हें भी इतिहासक्षेत्रको दूषित कर देने वाले ठहराएँगे? कि-"तत्त्वचिन्तन और इतिहास के क्षेत्र में पर्वग्रहोंसे मुक्त यदि नहीं तो फिर मेरे उस लेख पर वैसा आरोप कैसा? होकर तटस्थवृत्ति विचार करनेकी श्रावश्यकता है। इति. मैं तो जहाँ तक समझता है इतिहासक्षेत्र किसीकी गलतियां हासका क्षेत्र ही ऐसा है" इत्यादि वह बड़ा सुन्दर है, उस पकड़ने. अटियां बतलाने, भूले सुझाने और सत्यको अधि- में किसीको भी आपत्ति नहीं हो सकती। परन्तु अरछा काधिक रूपमें निकट लानेमे दूषित नहीं होता, किन्तु होता यदि शास्त्रीजी उस पर स्वयं पूर्णत: अमल करते प्रशस्त बनता है । दषित तो वह तब होता है जब किसी हुए भी नज़र पाते. क्यों कि अपने जैनसिद्वान्तभास्कर स्वार्थादिके वश सत्यको छिपाया जावे, जान-बम कर सत्य वाले लेखमे उन्होंने जो यह लिखा है कि "वस्तुत: यह का अपलाप पिया जावे. सत्यके प्रकट करने में असावधानी मंगलश्लोक श्रा०पूज्यपादने ही बनाया है" "यह श्लोक से काम लिया जावे अथवा याही चलती कलमसे विना निर्विवादरूपसे तत्वार्थसूत्रकी भूमिका बांधने वाले प्राचार्य अच्छी जांच-पड़ताल के किसी बातको निश्चित रूपमें प्रस्तुत पूज्यपादके द्वारा ही बनाया गया है" और बिना किसी कर दिया जावे, जब कि वस्तुस्थिति उस प्रकारकी न होवे। समर्थ हेतुके यह निर्णय भी दिया है कि-"विद्यानन्द उदाहरणके तौर पर शास्त्रीजीने अपने स्थायी साहित्य अपने पूर्ववर्ती किसी भी प्राचार्यको 'सूत्रकार' और पूर्ववर्ती न्यायकुमुदचन्द्र द्वितीय भागकी प्रस्तावना (पृ. ३०) में किसी भी ग्रन्थको 'सूत्र' लिखते हैं" वह सब पर्वग्रहसे लिखा है--"श्रा० विद्यानन्द ने सर्वप्रथम अपना तत्वार्थ- उनकी मुक्तिको मूचित नहीं करता और न तटस्थवृत्ति श्लोकवार्तिक ग्रन्थ बनाया है. तदुपरान्त अष्टमहस्री और विचारका ही द्योतक है, किन्तु किमी पक्षविशेषके आग्रहको और विद्यानन्द महोदय" यह लिखना आपका योही लिये हुए जान पड़ता है। अस्तु । चलती कलमसे विना जाँच पडतालका जान पड़ता है। अन्तम मैं अपने इस लेखके लिये शास्त्री जीका हृदय क्योंकि 'विद्यानन्दमहोदय' ग्रंथ अष्टसहस्रीसे ही नहीं किन्तु से श्राभार प्रकट करता हूं, क्योंकि उनके उत्तर लेखके तत्वार्यश्लोकवार्तिकसे भी पहलेका बना हुआ है, और इम निमित्तको पाकर ही मेरी इस लेखके लिम्सनेमे प्रवृत्ति हुई, लिये श्लोकवार्तिक ग्रंथ विद्यानन्दकी 'सर्वप्रथम' कृति नहीं कितना ही नया साहित्य देखना पड़ा, विचार-विनिमय है जैसाकि स्वयं विद्यानन्दके निम्न उल्लेखोंसे प्रकट है करना पडा, खोजकी ओर रुचि बढी और इस सबके फल- इति तत्त्वार्थालङ्कारे विद्यानन्दमहोदये च स्वरूप कितनी ही गुग्थियों ( उलझनों) को सुलभनेका प्रपञ्चत: प्ररूपितम्" -अष्टम० पृ० २८८-१०। अवसर प्राप्त हुआ है। अत: इस सबका प्रधान श्रेय शास्त्री २-परीक्षितमसद्विद्यानन्दमहोदये ('यैः' पाठ अशुद्ध जीको प्राप्त है--वे यदि उत्तर-लिखनेकी कृपा न करने तो -श्लोकवा० पृ० २७२ ३--"यथागमं प्रपञ्चेन विद्यानन्दमहोदयात।" यह लेख भी न लिखा जाता और पाठक विचारकी कितनी -श्लोकवा०पृ०३८५ ही बातोंसे वंचित रह जाते । इत्यलम् । ४-प्रपज्ञतो विचारितमेतदन्यत्रास्माभिरिति नेहो- वीरसेवामन्दिर, मरसावा संशोधन-इम लेखके छपने में जो खास अशुद्धियों हुई हैं उन्हे पाठक निम्न प्रकारसे सुधार लेवे पृ. ३६८, का.२, पं. २ मे १४ के स्थानपर २४, पृ. ३६६, का. २, पं.२ मे 'मृलके' स्थानपर मूलके भी; पृ. ३७१, का, १, पं. ३ मे 'प्रश्न' से पहिले 'तीन' और पृ. ३७२, का. २, पं०६ में भी नहीं के स्थान पर 'नही भी' तथा पं.२६ में 'लक्ष्य करके' का निम्न फुटनोट बना लेब*जैसा कि मर्वार्थसिद्धि के इन वाक्योंसे प्रकट है--"विनेशयवशात्तवदेशनाविकरूपः । केमिसेपरुचयः, अपरे नातिसंक्षेपेण नातिविस्तरेण प्रतिपाद्याः । “सर्वसत्वानुग्रहार्थो हि सतां प्रयास" इति अधिगमाप्युपायभेदोद्देशः कृतः।" -भ०१ सू०८

Loading...

Page Navigation
1 ... 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460