Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

View full book text
Previous | Next

Page 402
________________ किरण १० ११] तत्वार्थसूचका मङ्गलाचरण ३७५ - और उस कृतिको भगवानका स्तव बतलाते हुए उसका पुरस्सरस्तवविषय' और परीक्षाके स्वीकार द्वारा प्रस्थकार नाम 'देवागम' दिया है, जोकि 'देवागम' शब्दसं प्रारम्भ श्रीसमन्तभद्रका श्रद्धा-गुणज्ञता-लक्षणरूप प्रयोकन इन होनेके कारण भकामरादि स्तोत्रोंके नामोंकी तरह सार्थक जान तीनों बातोंको सूचित विया है-अर्थात् यह बतलाया है पड़ता है। प्राचार्य विद्यानन्दने भी समन्तभद्रकी उस कृति कि प्राचार्य श्रीसमन्तभद्र ने देवागम इत्यादि ग्रन्थ के द्वारा पर प्रष्टसहस्री नामकी एक अलंकृति (टीका) लिखी उस परम-प्राप्त देवके गुणातिशयकी परीक्षाको स्वीकार किया है जिसके प्रारंभिक एक ही मंगलपद्यमे उन्होंने है जो मंगलाचरगा के निमित्त रचे गये स्तवनका विषयभूत जिनेश्वर समुदाय और उनकी वाणीके साथ है और उनकी इस परीक्षासे यह स्पष्ट है कि वे प्रासके की समन्तभद्रकी स्तुति करके उनकी उम्प कृति पर अलं गुणों के ज्ञाता थे और उक्त स्तवनप्रतिपादित-गुणोंसे विशिष्ट कृति लिम्बनेशी प्रतिज्ञा की है घर कृतिका नाम 'प्राप्तमीमां श्राहमे श्रद्धा रखते थे। साथ ही यह भी प्रकट किया है सितम्' दिया है, जोकि उस कृतिको अन्तिम कारिका कि श्रद्धा और गुण ज्ञता इन दोनोमेसे किसी एकके भी 'इतीयमाप्तमीमांसा' में दिये हुए नामके अनुकत्ल है। साथ न होनेपर परीक्षाग्रंथकी उत्पत्ति बनती ही नहीं, क्योंकि ही नाममें प्रयुक्त हुए 'याप्त का विशेषण शास्त्रावतार शामान्यायानुसारिता (श्रद्धा) से- स्वरुचिविरचितरवका परिरचित-स्तुति-गोचर' दिया है। यहाँ पर मैं इतना और भी हार होनेसे-परीक्षाग्रन्थ मे उसी प्रकार विषयका उपन्यास बतला देना चाहता कि विद्यानन्द ने अपनी अष्टसहस्रीमे (प्रस्ताव) होता है जिस प्रकार कि वह पूर्वशाखमे पाया अकलंककी अष्टशनीको पूर्णतः अपनाया है और उसका जाता है। विद्यानन्दने प्रशतीके उक्त अंशको अपनाकर मूलत: अनुसरण करते तथा अपने क्थनका अष्टशतीसे तदन्तर प्रयुक्त हुए 'इत्यनेन' जैसे शब्दोंके द्वारा अकलंक्के समर्थन करते हुए अकलंकके हार्दको व्यक्त करने और उनके इसी श्राशयको और भी व्यक्त करते हुए अपने और अकप्रतिपाद्य विषयको पूर्वाचार्य-परम्पराकी मान्यनानुसार स्पष्ट लंके शब्दविन्यासकी एकाभितके नाते जो तुलना की है करने तथा मगत बिठलानेका भी पूरा प्रयत्न किया है। उसमें बतलाया है किऔर इस सब प्रयानके द्वारा वे स्वामी समन्तभद्र की कृतिको “मंगलपुरस्मरस्तवो हि शास्त्रावताररचितस्तति अलंकृत करने में प्रवृत्त हुए हैं। चुनौचे अपने मंगल पद्यके रुच्यते । मंगल पुरस्सरमस्येति मगलपुरस्सरः शालाविषयका स्पष्टीकरण करते हुए द्यिानन्दने, "तात्त- वतारकालान रचितः स्तवो मंगलपुरस्मरस्तवः इति कारपि तत वाद्दीपीकृतेत्यादिना तत्संस्तवविधनान्” व्याख्यानात।" इस वाक्यके द्वारा यह बतलाकर कि वृत्तिकार अकलंकदेवने अर्थात-मंगल पुरस्सरस्तव ही शास्त्रावतार रचितस्तुति भी इसीलिये 'उद्दीपीकृत इन्यादि पद्योक द्वारा बहसमुदाय कहा जाता है। क्योंकि मंगल है पुरस्सर जिसके ऐसा जो नवाणी और समन्तभद्रके स्तवनका विधान किया है, शास्त्रावतार काल वह 'मंगल पुरस्पर' कहलाता है और उस तदनन्तर अष्टशती वृत्तिके 'देवागमेन्यादि' उस श्राद्य वाक्य शास्त्रावतार काल के अवसर पर रचा गया जो स्तव स्तोत्र है को दिया है जिसे शास्त्रीजीने उपर्युक्त प्रकारमे अधूरा उद्धृत उमे 'मंगल पुरस्सरस्तव' कहते हैं, ऐया 'मंगलपुरस्परस्तव करके विद्यानन्नकी तत्वार्थशास्त्रके मंगलाचरण-विषयक पदका व्याख्यान है। 'मंगलपुरस्परस्न पदके इस न्यायानको शास्त्रीजी मान्यताका एकमात्र प्राधार बतलाया है और जिसका (बिन्दुस्थानीय) शेष अंश इस प्रकार है 'अर्थ' तथा 'अनुवाद' नाम देकर और अर्थ-अनुवाद तथा "श्रद्धा-गुणाज्ञतालक्षणं प्रयोजनमाक्षि लक्ष्यते। व्याख्यानमे कोई भेद न करके सीधा अर्थ' तथा 'सीधा नदन्यतरापायेऽथेस्यानुपपनेः । शाखन्यायानुसास्तिया अनुवाद' न करना बतलाते हैं। यद्यपि शाषीजीने स्पष्टरूपतथैवोपन्यासान।" से यह नहीं लिखा कि विद्यानन्दने अर्थ करने में गलती की, इस पूरे वृत्तिवाक्य द्वारा अकलंकने मूलग्रंथका नाम उनका अर्थ वस्तुस्थितिके विपरीत है अथवा 'देवागम', देवागमके द्वारा जिस परमश्राप्तकी गुणातिशय- वह किसी तरह बनता ही नहीं, बल्कि अन्यपदार्थपरीक्षाको स्वीकृत किया गया है उसका विशेषण 'मंगल- प्रधान बबीहि समासके द्वारा वैसा अर्थ बनता जरूर है

Loading...

Page Navigation
1 ... 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442 443 444 445 446 447 448 449 450 451 452 453 454 455 456 457 458 459 460