Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 396
________________ किरण १०११] तत्वार्थसूत्रका मङ्गलाचरण ३६६ तथा उनकी शैलीके न समझनेका भारोप काना कहाँ तक श्लोक सूत्र प्रन्थका मुख्य प्रवयव न होनेसे उसपर ग्यासगत है इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। ख्या होना या वातिक बनना भावश्यक नहीं है। मूलके ६ प्रत्याक्षेप-(क) बार्तिकका लक्षण कुछ भी क्यों किसा अशका व्याख्यान करना या न करना व्याख्याका न हो पर प्रश्न तो यह है कि जब अकलंकदेव और विद्या. रुचिविशेष पर प्रबलम्बित है, जैसा कि प्रत्याक्षेप नं०५ नन्द दोनों उमास्वामीके एक भी शब्दको बिना व्याख्या के समाधानमें दिये हुए सर्वार्थ सिद्धि. राजवार्तिक और या उत्थानिकाके नहीं छोड़ते उनपर वार्तिक बनाते हैं, श्लोकवातिक्में अभ्याख्यात अंशोंके स्पष्टीकरणसे प्रकट है। उन्थानिका लिखते हैं और अविकल व्याख्या पद्धतिसे उन (ग) प्रा. विद्यानन्द ने श्लोकवार्तिकर्मे सूत्रवार्तिकोंको की व्याख्या करते हैं । तब मंगल श्लोक क्यो उन्होंने लक्ष्य करके उक्त वार्तिकका लक्षण किया है । मीमांसाअाता छोड़ा श्लोकवार्तिक, न्यायवार्तिक, राजवार्तिक मादि सूत्र(ख) अथवा यह मंगलश्लोक भी सत्रग्रंथका अवयव वातिक ग्रंथ हैं । उनके अपने पार्तिक सूत्रोंपर रचे हुए हैं होनेसे सूत्र कहलाया, सूत्र पद्यामक भी होते हैं अत: इस और जन सबमें अनुपपत्ति चोदना, तत्परिहार और विशेष पर वार्तिक बनना न्याय प्राप्त है। कथन किया ही गया है। दिग्नागके कारिकारूप 'प्रमाण(ग) श्लोकवार्तिकमें किया गया वार्तिकका लक्षण समुच्चय' पर लिखा गया प्रमाणवार्तिक कारिकावार्तिक है सूत्रवार्तिक नहीं। अत: सत्रवार्तिकोंको लक्ष्य करके किये प्रमाणवार्तिकमें व्याप्त है। वार्तिकका एक व्यापक लक्षण गये विद्यानन्दके सत्रवार्तिक-खक्षणको कारिकावार्तिकरूप है ' उनानुक्तदुमक्तार्थचिन्ताकारि तु वार्तिकम् ' । अत: मगलश्लोकके त'वार्थसूत्र में उक्त होने से उसपर वार्तिक बनना प्रमाणवातिकमे अश्यापक बताना समुचित नहीं है। 'मूल भाग' या व्याख्येय अंश' को सत्र माना जावे तो प्राप्तउचित ही है। मोमांसा, युक्त्यनुशासन, न्यायविनिश्चय और प्रमाणसंग्रह ६ समाधान-(क) अकलंक और विद्यानन्दकी श्रादि ऐसे ग्रन्थ हैं जिनकी कारिकाएँ मूलभाग या व्याख्येय व्याख्य पद्धतिके सम्बन्धमे जो कल्पना की गई है वह अंश तो हैं पर वे सत्र नहीं हैं और न उनकी सूत्ररूपसे अव्यभिचरित एवं निर्दोष न होकर गलत है। जैपा कि ' प्रसिद्धि ही है। अतः सूत्रका 'मूलभाग' या 'ग्याख्येय अंश' प्रत्याक्षेप नं.५ के समाधानमें किये गये स्पष्टीकरणसे लक्षण मानने पर वह उक्त ग्रंथों में प्रतिव्यापक हो जाता है प्रकट है। और इसलिये उसके आधार पर मंगलश्लोककी और इस मूत्रलक्षणके माधारपर किया गया वार्तिकका अन्याख्यापर आपत्ति करना कुछ अर्थ नहीं रखता। लक्षण भी उक्त ग्रंथों के टीकाग्रंथों में--प्रष्टशती, अष्टसहस्री, (ख) मंगलाचरण ग्रंथका मुख्य अवयव (अंग) नहीं युक्त्यनुशासनालङ्कार, न्यायविनिश्चयालंकार मादिमें-व्याप्त है। जहाँसे ग्रन्थका प्रतिपाद्य विषय शुरू होता है और जहाँ होनेसे ये सब भी वार्तिक ग्रंथ न्यायप्राप्त हो जाते हैं। समाप्त होता है वह सब अंश मुख्यत: ग्रंथ कहलाता है। क्योंकि इनमें भी कहीं अनुपपत्ति-परिहार और कहीं विशेषामंगलाचरणमें ग्रंथका प्रतिपाद्य विषय वणित नहीं होता भिधानके रूप में व्याख्यान पाया जाता है। परन्तु ये वार्तिक उसका एक प्रयोजन निर्विघ्नतया ग्रंथकी समाप्ति भी है, है नही, अतएव यही मानना उचित जान पड़ता है कि जियमे मालूम होता है कि ग्रंथ प्रधानतः मगलाचरणके विद्यानन्दने उक्त बार्तिकका लक्षण सूत्रग्रंथों पर लिखे गये बादके और समाप्ति पर्यन्तके लेखसंग्रहको कहते हैं । इस वार्तिकग्रंथोंको ही लक्ष्य करके बनाया है, और इस तरह दृष्टिमे मंगलाचरगा ग्रंथसे उसी प्रकार अलग है जिस प्रकार वह न तो प्रष्टशती आदिमें प्रतिव्यापक होता है और न ग्रंथकी प्रशस्ति । जब वह वस्तुत: ग्रंथसे अलग चीज़ है प्रमाणवार्तिक में अध्यापक । मत: छठा आक्षेप ज्योंका त्यों तब उसपर ग्रंथके व्याख्याकागेको व्याख्या करना अनिवार्य स्थिर रहता है। नहीं है। ग्रंथारम्भके पूर्वमे निबद्ध किया जानेसे वह ग्रंथका ७ प्रत्याक्षेप--'मंगल पुरस्परस्तव' शब्दोंसे अकलंकका आदिम अंश उपचारसे कहा जाता है । अत: उक्त मंगल- अभिप्राय उक्त मंगलश्लोकको सूत्रकार कृत माननेका नहीं है।

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