Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 397
________________ ३७० अनेकान्त [ वर्ष ५ ७ समाधान-पुरातनाचार्य श्री विद्यानन्दने अकलंक एक ग्रन्थकारने अज्ञान या प्रमादसे अन्यथा किया है, और के उक्त शब्दोंका जो अर्थ किया है वह जब तक भले प्रकार इस तरह प्रक्लक तथा विद्यानन्द जैसे प्राचार्योंके विन्ही ग़लत साबित नहीं हो जाता तब तक यह नहीं कहा जा वाक्योंका एक जैन या जैनेतर ग्रन्थकार यदि ठीक अर्थ न सकता कि अकलंकका अभिप्राय उक्त मंगलश्लोकको सूत्र- समझकर अन्यथा व्याख्यान करता है तो उसका वह व्याकारकृत माननेका नहीं है। विद्यानन्दके अर्थकी सुसंगतता ख्यान भी यथ.बत व्यार यानकी टिम पाजायेगा। परन्तु और उसका पुष्टंकरण इस लेख में श्रागे किया गया है। ऐसा नहीं है । अतएव तत्वार्थवृत्तिपद-विवरणमे उपलब्ध प्रत्याक्षेर-'पाति' शब्दका ग्रयोग श्वेताम्बर ब्या- 'अव्यवस्थित व्यायान' या 'निर्देशमात्र' यथावत् व्याख्यान ख्याकारों और उनके ग्रंथोंके लिये क्यिा गया है और नहीं कहला सकता। प्रागे पाँचवें कारणके द्वारा इस मंगलश्लोकके विषयमें उन १. प्रत्यक्षेप--'इत्यादि' शब्दमे उन युत्तियांका की असाम्प्रदायिक स्थिति प्रकट की गई है। ग्रहण किया गया है जिन्हें इस लेखम दिया है। रममाधान--यदि दूसरे कारण में श्रादि शब्दके १० समान--पहिले लेखम उमास्वानिकृत न द्वारा श्वेताम्बर व्याखयाकारों और उनके प्रयाको ग्रहण होनेके पांच कारण गिनाये गये थे । इस लेख में दसरे करना इष्ट था तो वहीं दिगम्बर श्राचार्यों और उनके प्रथो वैरी कोई कारण न बतलाकर जिन युनियों की ओर संकेत की सूची में दो एक श्वे. व्याख्याकारी और उनके प्रयाका किया गया है वे विद्यानन्द की मान्यतामे बाधकरूपसे उपभी नामोल्लेख कर देना उचित था तभी वह उन सबका स्थित की गई है, उनकी परिगणना उमारातिकृत न होने बोधक हो सकता था। पोचव वारण को पृथक रखकर उस के का गमें नहीं की जा सकती। श्रतः 'इग्यादि' शब्द के के द्वारा असांप्रदायिक स्थितिको स्पष्ट करनेके साथ साथ द्वारा उनका ग्रहण क्त्त जाना ठीक नहीं है। जब यह भी कहा गया है कि अमुक-अमुक श्वे. श्राचार्योने उक्त मंगलश्लोककी व्याख्या नहीं की है, तब दूसरे कारण अनुपपत्तियोंकी अनुपपत्ति में 'पादि' शब्दके द्वारा उन श्वे. व्याख्याकारोंका पुनः उत्तरलेस के शुझमें शास्त्रीजीने 'बुछ अनुपपत्तियां इस निर्देश करना व्यर्थ ठहरता है। दोनों मेंस एको व्यर्थ जरूर उपशीर्षकके नीचे तीन अनुपपत्तियां दी हैं. जो श्रा० करना होगा। अत: पाँचवें कारण की व्यर्थताकी पाशिंका विधानन्दकी मोजमार्गम्य नेता' याति inar करके उसके परिहारका जो प्रय'न किया गया है वह युक्ति- तन्वार्थसूत्रका मंगलाचरण स्वीकार करनेरूप मान्यताको मंगत प्रतीत नहीं होता। सन्दिग्ध पोटिमें रखकर उपस्थित की गई है और जिनका प्रत्याक्षेप-तत्वार्यवृत्ति-पद-विवरण की जैसी व्या- लक्ष्य प० रामप्रसादजी श्रादिके लेखोकी कुछ बातोका ख्यान-शैली एवं मर्यादा है उसीके अनुसार 'यथावत' उनर देदेना अथवा उनके समक्ष अपने पूर्वलेखकी स्थिति व्याख्यान शब्दका अर्थ लगाना चाहिये। ग्रंथकार जिम्मका को स्पष्ट कर देनामात्र जान पर ता है। क्योंकि लेखमे आगे जिस रूप में व्याख्यान करना चाहता है वही उसका 'यथा- चलकर यह स्पष्टरूपये स्वीकार कर लिया गया है कि वत्' व्याख्यान है। कि विद्यानन्द उक्त मंगलश्लोकको उमास्वातिक तवार्थसमाधान-- तावार्थवृत्ति-पद-विवरण जब एक सूत्रका मंगलाचरण मानते थे और यह लिखकर कि "इस विवरणग्रन्थ है तब उसमें केवल अव्यवस्थितरूपसे निर्देश मंगलश्लोकको सूत्रकारकृत लिखनेवाले सर्वप्रथम श्रा० करदेनेमात्रको कोई भी विचारक विद्वान् 'यथावत् व्याख्यान' विद्यानन्द हैं" उनकी इस मान्यताके आधारको खोजनेका का रूप नहीं दे सकना । 'यथावत व्याख्यान' की यदि यही प्रयत्न भी किया गया है। ऐसी हालतम शास्त्रीजीके लिये परिभाषा मानी जाय कि "ग्रन्थकार जिसका जिस रूपमे विद्यानन्दकी उक्त मान्यता मन्दिग्ध कोटिमे न रहकर निश्चित व्याख्यान करना चाहता है वही उसका यथावत व्याख्यान वोटिमें आ जाती है और तब उनकी ये अनुपपत्तियों अनुहै" तो वह उस वाक्यार्थमें अतिव्यापक होजाती है जिसे पपत्नियों नहीं रहतीं किन्तु स्वयं ही अनुपपन्न होकर विचार

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