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अनकान्त
[वर्ष ५
प्रवर्तक धर्म के अनुसार काम अर्थ और धर्म तीन लिए हेय बन गया। यद्यपि मोक्षके लिए प्रवर्तक धर्म पुरुषार्थ हैं। उनमें मोक्ष नामक चौथे पुरुषार्थकी कोई बाधक माना गया पर साथ ही मोक्षवादियों को अपने कल्पना नहीं है । प्राचीन ईरानी आर्य जो अवस्ताको माध्य मोक्ष पुरुषार्थके उपाय रूपसे किसी सुनिश्चित धर्मग्रंथ मानते थे और प्राचीन वैदिक आर्य जो मन्त्र मार्गकी खोज करना भी अनिवाय रूपसे प्राप्त था।
और ब्राह्मणरूप वेद भागको ही मानते थे, वे सब इस खोजकी सूझने उन्हें एक ऐसा नार्ग, एक ऐसा उक्त प्रवर्तक धर्म के अनुयायी हैं। आगे जाकर वैदिक उपाय सुझाया जो किसी बाहरी साधन पर निर्भर न दर्शनोंमें जो मीमांमासादर्शन नामसे कर्मकाण्डी दर्शन था। वह एकमात्र साधककी अपनी विचारशुद्धि प्रसिद्ध हा वह प्रवर्तक धर्मका जीवित रूप है। और वर्तनशुद्धिपर अवलम्बित था । यही विचार
निवर्तक धर्म उपर सृचित प्रवर्तक धर्मका विल- और वतेनकी आत्यन्तिक शुद्धिका मार्ग निवर्तक धर्म कुल विरोधी है। जो विचारक इस लोकके उपरांत के नामसे या मोक्षमार्ग नामसे प्रसिद्ध हुआ। लोकान्तर और जन्मान्तर माननेके साथ उस जन्म- हम जब भारतीय संस्कृतिक विचित्र और विविध चक्रको धारण करनेवाली आत्माको प्रवर्तक धर्मवा- तानेबानेकी जांच करते हैं तब हमें स्पष्ट रूपसे दिखाई दियोंकी तरह तो मानते ही थे; पर साथ ही वे जन्मा- देता है कि भारतीय आत्मवादि-दर्शनोंमें कर्मकाण्डी न्तरमें प्राप्त उच्च उच्चतर और चिरस्थायी सुखसे मीमांसकके अलावा सभी निवर्तक धर्मवादी हैं । संतुष्ट न थे । उनकी दृष्टि यह थी कि इस जन्म या अवैदिक माने जाने वाले बौद्ध और जैनदर्शनकी जन्मान्तरमें कितना ही ऊँचा सुख क्यो न मिले, वह संस्कृति तो मूलमें निवर्तक धर्मस्वरूप है ही पर वैदिक कितने ही दीर्घकाल तक क्यों न स्थिर रहे पर अगर समझ जाने वाले न्याय-वैशेषिक सांख्य-योग तथा वह सुख कभी न कभी नाश होनेवाला है तो फिर औपनिषद दर्शनका आत्मा भी निवर्तक धर्म पर ही वह उच्च और चिरस्थायी सुख भी अन्तमें निकृष्ट प्रतिष्ठित है । वेदिक हो या अवैदिक सभी निवर्तक सखकी कोटिका होने उपादेय हो नहीं सकता । वे धर्म प्रवर्तक धर्मको या यज्ञयागादि अनुष्ठानोंको अन्त लोग ऐसे किसी सुखकी खोजमे थे जो एक बार प्राप्त में हेय ही बतलाते है। और वे सभा सम्यक ज्ञान या होने के बाद कभी नष्ट न हो । इम खोजकी सुझने प्रात्मज्ञानको तथा आत्मज्ञान-मूलक अनासक्त जीवनउन्हें मोक्ष पुरुषार्थ मानने के लिए बाधित किया। व्यवहारको उपादेय मानते हैं । एवं उसीके द्वारा वे मानने लगे कि एक ऐसी भी आत्माकी स्थिति पुनर्जन्मके चक्रसे छुट्टी पाना सभव बतलाते हैं। संभव है जिसे पाने के बाद फिर कभी जन्मजन्मा- ऊपर सूचित किया जा चुका है कि प्रवर्तक धर्म तर या देह-चारण करना नहीं पड़ता। वे आत्माकी समाजगामी था। इसका मतलब यह था कि प्रत्येक उस स्थितिको मोक्ष या जन्म-निवृत्ति कहते थे । प्रवर्तक व्यक्ति समाजमें रहकर ही सामाजिक कर्तव्य जो धर्मानुयायी जिन उच्च और उच्चतर धार्मिक अनु- ऐहिक जीवनसे सम्बन्ध रखते हैं और धार्मिक कर्तव्य प्ठानोस इस लोक तथा परलोकके उत्कृष्ट सुखोक जो पारलौकिक जीवनसे सम्बन्ध रखते हैं, उनका लिये प्रयत्न करते थे उस धार्मिक अनुष्ठानोको निव- पालन करे। प्रत्येक व्यक्ति जन्मसे ही ऋषि ऋण तक धर्मानुयायी अपने साध्य मोक्ष या निवृत्ति के लिए अर्थात् विद्याध्ययन आदि, पितृ-ऋण अर्थान् संततिन केवल अपर्याप्त ही समझते बल्कि वे उन्हें मोक्ष जननादि और देव-ऋण अर्थात् यज्ञयागादि बन्धनों पाने में बाधक समझकर उन सब धार्मिक अनुष्ठानोंको से आबद्ध है। व्यक्तिको सामाजिक और धार्मिक प्रात्यन्तिक हेय बतलाते थे । उद्देश्य और दृष्टि में पूर्व- कर्तव्योंका पालन करके अपनी कृपण इच्छाका संशोपश्चिम जितना अन्तर होनेसे प्रवर्तक धर्मानुयायिओं धन करना इष्ट है । पर उसका निमूल नाश करना न के लिए जो उपादेय वही निवर्तक धर्मानुयायिओंके शक्य है और न इष्ट । प्रवर्तक धर्मके अनुसार प्रत्येक