________________
सम्पादकीय
पं० महेन्द्रकुमारजीका लेख- का उत्तर होजाने पर 'अनेकान्त के लेख में कोई महत्वका
अनुच्छिष्ट उत्तरणीय भाग नहीं रह जाना ।" इस किरण में अन्यत्र (पृ. २८१) न्यायाचार्य पं. इस पर, यथार्थ वस्तुस्थितिको व्यक्त करते हुए, मै महेन्द्रकुमारजी शास्त्रीका 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' शीर्षक लेख कुछ प्रकाश डाल देना अपना कर्तव्य समझता हूँ । अत प्रकाशित हो रहा है। यह लेख लेखक महोदयकी इच्छा- इसके सम्बन्धमे मेग निवेदन इस प्रकार हैनुसार अविकलस्पसे छापा गया है इस पर सम्पादक पं० दरबारीलालजी कोठियाने अपना उक्त लेख अगस्त की कोई कलम नहीं लगी। लेख परमे पाठकको मालूम के मध्यमे कोई १५.१६ तारीखको मुझे सम्पादनार्थ दे दिया होगा कि यह लेख न्यायाचार्य पं. दरबारीलाल जी कोठिया था। उस वक्त तक पं. रामप्रसादजी और जिनदासजी के उस विस्तृत एवं व्यवस्थितप्राय लेखके उत्तररूपमें नही शास्त्रियों के वे लेख अपने यहाँ नही पाए थे जो जैनसिद्वाहै जो अनेकान्तकी गत किरण में 'तत्त्वार्थमूत्रका मंगलाचरण' न्त-भास्करमे प्रकाशित पं. महेन्द्रकुमारजीके उक्त लेखक शीर्षकके साथ प्रकाशित हुआ है और जिसका एकमात्र प्रतिवाद-स्वरूप लिखे गये हैं और जो जैनयोधक के लक्ष्य पं. महेन्द्रकुमारजीके उस लेख पर कुछ गहरी छान- १६ अगस्त तथा २ मिनम्बरके अंको (नं० २२, २३) में बीनके साथ विचार करना था जो जैन सिद्धान्तभास्करमे प्रकाशित हप है। ये अंक वीरसेवामन्दिरमें क्रमश: २२ उनके उक्त शीर्षकके साथ ही प्रकाशित हुआ था। न्याया- अगस्त श्रीर ७ सितम्बरको पहुंचे हैं। अत: इन लेखांका चार्यजीका यह लेख मुख्यत: पं. रामप्रसाद जी शास्त्री बंबई कोठियाजीने अपने लेखम कोई उपयोग नहीं किया और न और पंजिनदासजी शास्त्री शोलापुरके उन लेखोको लक्ष्य इनकी किसी सामग्रीमे अपने लेखको बढ़ाया है। मुझे भी करके लिखा गया है जो जुलाई-अगस्तके महीनाम 'जैन- कल तारीख १४ नवम्बरको ही इन लेखाके देवनेका अवगजट' और 'जैनबोधक' में 'समन्तभद्रका समय' आदि सर मिला है। अब रही प० रामप्रसादजीक उस लेखकी शीर्षकांके साथ प्रकाशित हुए थे, लेखके अन्त मे चलतीमी बात, जो जैनगजटके , और १६ जुलाई सन् १६४२ के दो-चार बातें कोटियाजीके लेग्यपर भी कह दी गई हैं। इस अंकोंमे प्रकाशित हुआ है और जो न्यायकुमुन्दचन्द्र द्वि० तरह कोठियाजीके लेखके उत्तरसे जो किनाराकशी की गई भागकी प्रस्तावनामे आए हुए समन्तभद्रके समय सम्बन्धी है, उसके औचिन्यको तो लेखकजी ही जान, परन्तु इस युक्तियोको लक्ष्य करके लिम्बा गया है। जैनगजटके उत. किनाराकशीका कुछ कारण बतलाते उन्होंने जो यह लिस्वा अंक अपने यहां उस समय पाए जब कि पाश्रममे ग्रिलोक है कि---
प्रज्ञप्तिकी एक पुरानी प्रति परसे 'पुगनन-जनवाक्य-सूची में "मुझे आश्चर्य इस बातका हुआ कि इस लेखके अन्त नोट की हुई गाथाओंके मिलानका काम जोरोंसे चल रहा में मुग्तार सा. के सहयोगके लिये तो अाभार प्रदर्शित था और उसमे कोठियाजी, पांड्याजी तथा परमानन्द जी किया गया है पर जिन पं. रामप्रसाद जी और पं० जिन- ये तीन विद्वान पूर्णत: लगे हुए थे; वीरशासन जयन्तीके दासजी शास्त्रीके लेग्योंकी सामग्रीसे लेख सप्राण हुधा है जल्सेकी निकटता और उप प्रतिको वापिस भेजनेकी शीघ्रता और जिनकी सामग्रीके पिष्टपेषण एवं पल्लवनसे इस लेखका के कारण किमीको भी जैनगजट-जैसे पत्रोंको पढनेका अवकलेवर बढा है उनका नामोल्लेख भी नही किया यया है। सर नहीं था और न बादको उनके पढनेकी ओर ध्यान अत: मैं तो १० रामप्रसादजी तथा जिनदासजी शास्त्रीके गया। इसीसे कोठियाजीके देखने में प. रामप्रसादजी लेखाको मुख्यतः सामने रख कर उस (न?) के उत्तर- का उक्त लेख भी नहीं पाया, और मेरी प्रवृत्ति तो उसे माय अंश पर अपने विचार प्रकट कर रहा है। इन लेखों देखनेमे कल ही हुई है। ऐसी हालतम उक्त लेम्बर भी