Book Title: Anekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Author(s): Jugalkishor Mukhtar
Publisher: Veer Seva Mandir Trust

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Page 362
________________ किरण १०-११] अनेकान्नके मुख्यपृष्ठका चित्र ३३५ है। अनः सप्तभागोंका बात केवल चित्रकार अथवा ही सम्मतियाँ अनेकान्तके चौथे वर्ष में 'अनेकान्तपर चित्रकारको भाव देने वालाकी भी 'ताननून' लोकमत' शीर्पफके नीचे प्रकाशित हुई हैं, कुछ अन्य नहीं है और न जैनसिद्धान्त के ही वह विपरीत है। पत्रों में प्रकट हई हैं और कुछ अपने पास अप्रकाशित श्रावकजीको यदि वह विरात भामती है तो इसे तब भी पड़ी हुई हैं। इन सबमे से कुछ सम्मतियाँ नमूने उन्हीकी दृष्टिका दोप समझना चाहिये । के तौरपर नीचे दी जाती हैं जिनसे मालूम होगा कि गोपीके मूलतः दो ही हाथ ह ते हैं, यह बात अनेकान्तके मुख्यपृष्ठका चित्र विद्वानोंकी दृष्टि में कितने ऊपर बतलाई जा चुकी है। परन्तु जब वह एकम महत्वका है और वे उसे कितना सुसंगत तथा जैनी अधिक दृष्टियों को अपनाती है तब उस दृष्टिपरिणति- नीतिको स्पष्ट करने वाला बतला रहे हैं :रूप उसकी स्थितिको स्पष्ट करने के लिये चित्रम दोसे १-६० कैलाशचन्द्र जैन सि० शास्त्री,(संपादक अधिक हाथोका चित्रित किया जाना अनुचित नहीं जैनसन्देश), काशी-"चित्र जैनी नीतिका है। और है। चित्र में जहाँ दोसे अधिक हाथ अकित हैं उनका जैनी नीतिरूपी अनेक गोपिकाओं के द्वारा अनेकायह अभिप्राय नही है कि व सत्र हाथ एक साथ काम तात्मक वस्तुतत्त्वको आलोडन करके सापेक्ष दृष्टिसे कर रहे हैं-सबके तक साथ काम करनपर मन्थन- इच्छित तत्वको निकालनेकी प्रक्रियाका चित्रण क्रिया बन ही नहीं मकरी । मन्थन क्रिया दो ही हाथों सम्पादक पं जुगलकिशोरजी मुख्तारके बुद्धिकौशलका सं हुआ करती है, दूसरे दो अथवा चार हाथोंका सजीव प्रतिबिम्ब है। चित्रके द्वारा जैनधर्मके जिस चित्रण मात्र दूसरी हटियाका अपनाते समय उसके महान सिद्धान्तका चित्रण किया गया है, उसे समझना हाथाकी स्थिति (Position) का अ.भास कराने के सबके लिए शक्य नहीं है, और इसी लिए उसकी लिये ह, श्रार इस लि. उमं अनुचित नहीं कहा जा प्रक्रियासे अनभिज्ञ अधिकांश पाठकोंको वह केवल सकता । जिन पन्नालाल जी 'वसन्त' का श्रावकजी क कौतककी वस्तु-संभवतः वैद्यों के भयके जैसा न नामोल्लेख किया है उन्होने अनेकान्त के मुखपृष्ठ लगेगा. किन्तु प्रथम लेख 'चित्रमय जैनी नीति' वाल नीनीतक चित्रको ग्खूब पसन्द किया है और मे वे इसका रहस्य समझनेका प्रयत्न कर सकते हैं। उस चित्रपरमे ही उनकी कविताका जन्म हुआ है, २-न्यायाचार्य पं. महेन्द्रकुमार, काशीजो उम चित्रके भावको स्पष्ट करने तथा उसका पूर्णतः "मुखपृष्ठका चित्र अवश्य ही आपकी तलस्पर्शी सूझका अभिनन्दन करने के लिए ही लिखी गई है। सुपरिणाम है। वह जैनी नीतिका यथार्थ द्योतन कर इस मच विवेचनपरसे स्पष्ट है कि श्रावकजीकी रहा है।" उक्त-आपतिमें कुछ भी सार नहीं हैं। ३-पं० श्रजिनकुमार शास्त्री, मुलतान-"मुखउक्त आपत्तिके अनन्तर श्रावकजीने दो विद्वानों पृष्ठ पर सप्तभंगीको जिस चित्र द्वारा अंकित किया है का नामोल्लेख करके लिखा है कि, उन्होंने भी चालीस वह कल्पना प्रशंसनीय है।" गाँवमें उम चित्रको असंगत कहा है। यदि सचमुच ४-पं०पन्नालाल साहित्याचार्य,सागर-"मुखउन्होने ऐसा कहा है तो मालूम नहीं किस दृष्टिसे कहा पृष्ठ पर अत्यन्त भावपूर्ण चित्रमय जैनी नितिका चित्र है । जब तक उनकी दृष्टि-युक्ति सामने न आप तब तक है, जो कि अनेकान्त जैसे पत्रके लिये सर्वथा उपयुक्त उसपर कोई विचार नहीं किया जामकता । होसकता है।" है कि उन्हें भी चित्रकारका ठीक आशय समझने में ५-६० परमेष्ठीदास न्यायतीर्थ, सूरत -"मुखभ्रम हुआ हो । मालूम होता है श्रावकजीको दूसरे पृष्ठका चित्र तो देखते ही बनता है। कई वर्षसे जिमे विद्वानोंकी सम्मत्तियाँ देखनेको नहीं मिली अथवा भोकोंमे पढ़ते आए थे उसे चित्रबद्ध देख कर बहुत उन्होंने उनपर कोई ध्यान नहीं दिया। ऐसी कितनी आनन्द हुआ। उसे लेकर मैने अपने कई अजैन

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