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अनेकान्त
[वर्ष ४
और यह भी हो सकता है कि शक-क लकी तरह वीर- यहां पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हूँ कि निर्वाणके वर्षों की संख्याका तत्कालीन ग़लत प्रचार ही श्वेताम्बरीय विद्वान मुनि कल्याण विजयजी तो अपनी इसका कारण हो। परन्तु कुछ भी हो, ग्रन्थके अन्त:- 'श्रमणभगवान महावीर' पुस्तकमे बहानक लिखने हैं किपरीक्षण परसे मुझे उक्त समयके ठीक न होनेके जो दृपरे विक्रमी सातवी शताब्दीमे पहले दिगम्बर श्वेताम्बर विशेष कारण मालूम हुए हैं वे निम्न तीन भागोम दोनो स्थविर परम्पराधीमे एक तृमरेको दिगम्बर-श्वेताम्बर विभक है:--
कहमेका प्रारभ नही हुश्रा था। जैसा कि उनके निम्न (१) दिगम्बर-श्वेताम्बरके सम्प्रदाय-भेदसे पहले पउम वाक्यमे कट है:चरियका न रचा जाना ।
इसी समय (विक्रमकी सातवीं शताब्दी के प्रारंभसे (२) ग्रन्थमे दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्दकी मान्यताका
दशवीके अन्त तक) मे एक दमको विगम्बर- मा
कहनेका भी प्रारम्भ हुश्री।" पृष्ट ३०७ अपनाया जाना। (३) उमास्वातिके तत्वार्थसूत्रोका बहुत कुछ अनुसरण
मुनि कल्याण विजयजीका यह अनुसंधान यदि ठीक
है तो पउमचारियका रचनाकाल विक्रम संवत १३६ से ही किया जाना। अब मैं इन तीनो प्रकारके कारणोंका क्रमश. स्पष्टी.
नही किन्तु विक्रम की मानवी शताब्दीमे भो पहले का नही
हो सकता। इस ग्रंथ का सबसे प्राचीन उल्लेख भी अभी करण करके बतलाता हूं--
तक कुवलयमाला' नाम के प्रथमे ही उपलब्ध हुअा है जो (१) जैनोमें दिगम्बर-श्वेताम्बरका सम्प्रदाय-भेद दिग
शकसंवत् ७०० अर्थात् विक्रम संवत् ८३५ का बना हुआ है। म्बरोंकी मान्यतानुसार विक्रम संवत् १३६ में और श्वेताम्बरों
(:) श्रीकुन्दकुन्द दिगम्बर सम्प्रदायके प्रधान प्राचार्य भी मान्यतानुसार संवत् १३६ में हुआ है। इस भेदये
हैं। अापने चारित्तपाहुड में सागारधर्मका वर्णन करते हुए पहलेके साहित्यमें जैन माधुओंके लिये 'दिगम्बर'- श्वेताम्बर'
पल्ले ग्बनाको चतुर्थ शिक्षाबत बतलाया है। अ.पसे पूर्वक शब्दोका स्पष्ट प्रयोग कही भी नहीं देखा जाता। ऐसी
और किसी भी प्रन्थमे इस मान्यताका उल्लेख नहीं है, स्थिति होते हुए यदि इस ग्रन्थमे कि जैन साधु के लिये
और हम लिये यह वास श्रापकी मान्यता समझी जाती श्वेताम्बर (सियबर) शब्दका स्पष्ट प्रयोग पाया जाता है तो
है। अापकी इस मान्यताको पउमचरियके कर्ता विमलमूरि वह इस बातको सूचित करता है कि यह ग्रथ वि० संग्न
ने अपनाया है। श्वेताम्बरीय भागम-मृत्रोंमें इस मान्यता १३६ से पहलेका बना हुआ नही है. जिस वक्त तक कि
का कहीं भी उल्लेख नहीं है। चुनाचे मुख्नार साहबको दिगम्बर श्वेताम्बरके सम्प्रदाय-भेदको कल्पना रूढ नहीं हुई
प्राप्त हुए मुनि श्रीपुण्य विजयजीके पत्रके निम्नवाक्यमे भी थी। ग्रंथके २२ वे उद्देशमे एक स्थल पर ऐसा प्रयोग
ऐसा ही कट है:-'श्वेताम्बर भागमामे कही भी १७ सष्ट है । यथा
बारह व्रताम मल्लेखन का समावेश शिक्षाव्रत के रूपमें नहीं पेच्छइ परिभमंतो दाहिणदेसे मियंवरं पणश्री। किया गया है।" चारित्तपाहुडके इस मागारधर्म वाले तस्स सगासे धम्म सुणि ऊरण तो समाढनो ।। ७ ।। पद्योका और भी कितना ही सादृश्य इस पउमरियमे पाया अहभणइ मुणिवरिदो णिमुण सुधम्म जिहि परिकहियं जाता है, जैसा कि नीचे की तुलना परसे प्रकट है :-- जेहो य समणधम्मो मावयधम्मो य अगजेट्टो ॥७६|पंचवणव्वयाई गगव्वयाई हवंति नह तिरिण।
इसमे राज्यच्युत सौदाम राजाको दक्षिण देशमे भ्रमण सिक्खावय चत्तारिय संजमचरणं च मायारं ॥ २३॥ करते हुए जिस जैन मुनिका दर्शन हुश्रा था और जिसके थूल तमकायबहे थूल मासे अदत्त थूले य । पाससे उसने श्रावकके व्रत लिये थे उसे श्वेताम्बर मुनि परिहारो परमहिला परिग्गहारंभपरिमाणं ।।४।। लिखा है। अत: यह ग्रन्थ वि० संवत १३६ से पहलेकी दिमविदिममाणपढमं अगत्थदंडम्स वजणं विदियं। रचना नहीं हो सकता।
भोगीपभोगपरिमा इयमेव गुणव्वया तिरिण ||२||