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अनेकान्त
[वर्ष५
उल्लेखोंके ठीक प्राशयका दूसरे विद्वानों द्वारा स्पष्टीकरण प्राधार खोजनेमे लगे हैं। अपनी खोज परसे उन्हे यह किया जाने और उस स्पष्टीकरणकी पुष्टिमे प्राचार्य महोदय मालुम पड़ा है कि विद्यानन्दके सामने उक्त मंगलश्लोकको के दसरे भी कुछ उल्लेखोंके मामने लाये जाने पर पंडित उमास्वामिकृत मानने के लिये कोई सष्ट पूर्वपरम्परा नहीं जीका वह श्राधार डोला ही नहीं किन्तु प्राय: गिर गया थी, उन्होंने अकलंककी अष्टशतीके एक वाक्य परसे अपनी है, और इसलिये उन्होंने अपनी कुछ अनुपपत्तियों के गलत धारणा बनाली है, उसके पूर्वापर-सम्बन्धपर ठीक रहते हुए भी इस बातको स्वीकार कर लिया है कि श्रा. विचार नहीं किया और इसीसे वे अपनी अष्टसहस्रीमें उक्त विद्यानन्द 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मंगल-श्लोकको वाक्यका सीधा अर्थ न करके उलटा अर्थ करने में प्रवृत्त हुए उमास्वामिकृत तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण मानते थे; जैसा हैं। इस तरह पं. महेन्द्र कुमार जीने यह एक नया विषय कि आपके लेखके 'श्राचार्य विद्यानन्दकी मान्यताका आधार' विचार के लिये प्रस्तुत किया है, जिस पर विद्वानाको गहराई इस प्रकरणसे प्रकट है।
के साथ विचार करना चाहिये। (३) अब पं. महेन्द्रकुमारजी श्रावार्य विद्यानन्दकी वामना) मान्यताको संदेहकी दृष्टिसे देखने लगे हैं और उसका १५-११-४२
जुगलकिशोर मुख्तार
( पृष्ट २८७ का शेषांश ) उपसंहार
विद्यानन्द के उल्लेखमे ऐतिहासिक दृष्टि भी निविष्ट है तो " इस तरह मैं अपने विचारोको सक्षेपमें पाठकोंके अत: विद्यानन्द के उल्लेखोंमे वितनी ऐतिहासिक दृष्टि है सामने रखकर उनसे इसे निणन करार देनेका अति साहस और समन्नभद्र के समय पर उसका क्या प्रभाव पड़ता है पूर्ण भ.ग्रह तो नहीं कर सकता, हौं, उनमें यह अवश्य तथा अन्य प्रमाणामे समन्तभद्रका क्या समय हो सकता है निवेदन कर देना चाहता हूं कि तत्वचिन्तन और इतिहास इसपर पथावमर लिखने का विचार है। के क्षेत्र में पूर्वग्रहोंसे मुक्त होकर तटस्थवृत्तिस विचार करने अन्नमे मैं यह लिख देना भी उचित समझता हूं कि की बावश्यकता है। इतिहासका क्षेत्र ही ऐसा है कि इसमें इतिहास विषयके लेखोंको किसी प्रोपेगेन्डेका साधन उत्तरोत्तर वाद-प्रतिवादसे नई वस्तुयें सामने आती जाती हैं बनाना इस क्षेत्रको भी दूषित कर देना होगा। कोई लेख जो सत्यके निर्णयमें सहायक होती हैं।
लिखा और तुरन्त ही उसके नामसे सम्मतियों इकट्ठी करने __ तत्वार्थसनकी अनेक प्राचीनसे प्राचीन प्रतियोके देखने की वृत्ति शोभन नहीं कही जा सकती। ऐसे लेखोंपर विद्वान् की आवश्यकता है जिससे यह जाना जासके कि तत्वार्थसत्र विशेष ऊहापोह करे यही प्रशस्त मार्ग है और इसी से सन्य की प्रतियोमें यह मंगलश्लोक कबसे शामिल हुआ है। के निकट पहुंचा जा सकता है। सम्मतियांके बलपर ऐतिभनेक तत्वार्थसत्रकी छपी तथा लिखित प्रतियों में इस मंगल- हासिक प्रश्नोंके निर्णय करनेकी पद्धति कभी कभी सम्मतिश्लोकका तरवार्थसत्र अङ्गके रूपमे न पाया जाना ख़ास दाताओंको भी असमञ्जसमें डाल देती है। जैसा कि महत्व रखता है। प्रस्तु, विद्वान्, पाठकोसे निवेदन है कि कर्मकाण्डकी ऋटिपूर्ति' लेखपर सम्मति देने वाले अनेक इस विषयका और विशेष ऊहापोह करें। मेरे ध्यान में इसके सम्मतिदाताओंको स्वयं अनुभव हुश्रा होगा। और सम्मतियो उपयुक्त जो सामग्री थी वह संक्षेपमें प्रस्तुत कर दी है। प्रागे भी 'यदि ऐसा है तो 'सम्भव है' आदि अनेक बचावके जो और सामग्री मिलेगी उसे यथावसर लिखेंगे। वाक्योंसे श्रोत प्रोत रहती हैं। अत: इतिहास और तत्वज्ञान
रह जाती है समन्तभद्रके समयका प्रश्न | उसके विषय सम्बन्धी लेख प्रोपेगेण्डेकी भावनासे रहित होकर लिखे में मैंने स्वयं न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भागकी प्रस्तावना और आय यही प्रशस्त मार्ग है। प्रमेयकमलकी प्रस्तावनामें ये शब्द लिखे हैं कि "यदि