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अनेकान्त
दीर्घ तपस्वी महावीरने भी एक बार अपनी हिंसावृत्ति की पूरी साधनाका ऐसा ही परिचय दिया । जब जंगलमे वे ध्यानस्थ खड़े थे एक प्रचण्ड विपधर ने उन्हें डस लिया, उस समय वे न केवल ध्यानमें अचल ही बल्कि उन्होने मैत्री भावनाका उस विषधर पर प्रयोग किया जिससे वह "अहिंसा प्रति छायां तत्संनिधी गैरत्यागः " इस योगसूत्रका जीवित उदाहरण बन गया । अनेक प्रसंगों पर यज्ञयागादि धार्मिक कार्यों में होने वाली हिंसाको तो रोकनेका भरसक प्रयत्न वे आजन्म करते ही रहे । ऐमे ही आदर्शो से जैनसंस्कृति उत्प्राणित होती आई है और अनेक कठिनाइयो के बीच भी उसने अपने आदर्शोंके हृदयको किसी न किसी तरह संभालनेका प्रयत्न किया है, जो भारतके धार्मिक, सामाजिक और राजकीय इतिहास में जीवित है । जब कभी सुयोग मिला तभी त्यागी तथा राजा, मन्त्री तथा व्यापारी आदि गृहस्थों ने जैन संस्कृतिके हिंसा, तप और संयम के आदर्शो का अपने ढंग से प्रचार किया ।
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रही। उसने एक विशिष्ट समाजका रूप धारण किया । समाज कोई भी हो वह एकमात्र निवृत्तिकी भूलभुलैयों पर न जीवित रह सकता है और न वास्तविक निवृत्ति ही साध सकता है। यदि किसी तरह निवृत्तिको न माननेवाले और सिर्फ प्रवृत्तिचक्रका ही महत्व मानने वाले श्रादोर में उस प्रवृत्तिके तूफान ओर आधीमें ही फंसकर मर सकते हैं तो यह भी उतना ही सच है कि प्रवृत्तिका आश्रय विना लिये निवृत्ति भी हवाका फ़िला ही बन जाती है । ऐतिहासिक और दार्शनिक सत्य यह है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति क ही मानव कल्याणके सिक्के के दो पहलू है। दोष, गलती, बुराई और अकल्याणमं तब तक कोई नहीं बच सकता जब तक वह साथ ही साथ उसकी एवज में सद्गुणोकी पुष्टि और कल्याणमय प्रवृत्तिमं बल न लगावे । कोई भी बोमार केवल अपथ्य और कुपथ्यमे निवृत्त होकर जीवित नहीं रह सकता । उसे साथ ही साथ पश्य सेवन करना चाहिये । शरीरमं दूषित रक्तको निकाल डालना जीवन के लिये अगर जरूरी है तो उतना ही जरूरी उसमें नये रुधिरका संचार करना भी है।
संस्कृतिमात्रका उद्देश्य है मानवताकी भलाई की ओर आगे बढ़ना । यह उद्देश्य तभी वह साध सकती है जब वह अपने जनक और पोषक राष्ट्रकी भलाईमें योग देनेकी ओर सदा अग्रसर रहे। किसी भी संस्कृतिक बाह्य अंग केवल अभ्युदय के समय ही पन पते हैं और ऐसे ही समय वे आकर्षक लगते हैं । पर संस्कृतिके हृदयकी बात जुदा है। समय आतका हो या अभ्युदयका, उसकी अनिवार्य आवश्यकता सदा एक सी बनी रहती है। काई भी संस्कृति केवल अपने इतिहास और पुरानी यशगाथाओ के सहारे न जीवित रह सकती है और न प्रतिष्ठा पा सकती है । जब तक कि वह भावी निर्माण में योग न दे। इस दृष्टिसे भी जैन संस्कृति पर विचार करना मंगत है । हम ऊपर बतला आए हैं कि यह संस्कृति मूलतः निवृत्ति अर्थात पुनर्जन्म से छुटकारा पाने की दृष्टिसे आविर्भूत हुई। इसके आचार-विचारका सारा ढांचा उसी लक्ष्य के अनुकूल बना है। पर हम यह भी देखते हैं कि आखिर में वह संस्कृति व्यक्ति तक सीमित न
ऋषभसे लेकर आज तक निवृत्तिगामी कहलाने वाली जैन संस्कृति भी जो किसी न किसी प्रकार जीवित रही है वह एकमात्र निवृत्तिके बलपर नही किन्तु कल्याणकारी प्रवृत्तिके सहारे पर । यदि प्रवर्तक धर्मी ब्राह्मणोंने निवृत्तिमार्ग के सुन्दर तत्वों को अपनाकर व्यापक कल्याणकारी संस्कृतिका ऐसा निर्माण किया हैं जो गीता मे उज्जीवित होकर आज नये उपयोगी स्वरूपमे गांधीजी के द्वारा पुनः अपना सरक
कर रही है तो निवृत्तिलक्षी जैन संस्कृतिको भी कल्याणाभिमुख आवश्यक प्रवृत्तियों का सहारा लेकर ही आजकी बदली हुई परिस्थिति में जीना होगा । जैन संस्कृतिमे तत्त्वज्ञान और आचार के जो मूल नियम हैं और वह जिन आदर्शों को आज तक पूजती मानती आई है उनके आधार पर वह
मंगलमय योग साध सकती है जो सत्रको क्षेमकर हो ।
जैन परंपरा में प्रथम स्थान है त्यागियोका, दूसरा स्थान है गृहस्थोका । त्यागियोंको जो पांच महाव्रत