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अनेकान्त
[वर्ष ५
त्रिभुवन स्वयंभु
कवि कहाँके थे? स्वयंभुदेवके छोटे पुत्रका नाम त्रिभुवन स्वयंभु था।
अपने ग्रन्थों में इन दोनों कवियोंने न तो स्थानका नाम ये अपने पिताक सुयोग्य पुत्र थे और उन्हींके समान महा- दिया है, न अपने समयके किसी राजा श्रादिका जिससे यह कवि भी। कविराज-चक्रवर्ती उनका विरुद था। लिखा है पता लग सके कि वे कहाँके रहनेवाले थे। अनुमानसे इतना ही कि उस निभवनस्वयमुके गुणों का वर्णन कौन कर सकता है
कहा जा सकता है कि वे दाक्षिणात्य थे और बहुत करके जिसने वाल्यावस्थामे ही अपने पिताके काव्य-भारको उठा
पुष्पदन्तके ही समान बरारकी तरफके होंगे यद्यपि मारुतदेव, लिया। यदि वह न होता तो स्वयंभ देवके काव्या, धवलइया, बंदइया, नाग, पाइरचंबा, सामिश्रब्बा, आदि कुलका और कवित्वका समुद्धार कौन करता ? और सब
नाम कर्नाटक जैसे हैं और ऐसे ही कुछ नाम अन्मइय, लोग तो अपने पिताके धनका उत्तराधिकार ग्रहण करते हैं. मीलइय, पुष्पदन्तके परिचित जनों के भी हैं। परन्तु त्रिभुवन स्वयभ ने अपने पिताके सुकविश्वका उत्तरा
ग्रन्थ-रचना धिकार लिया। उसे छोड़कर स्वयंभ के समस्त शिष्योंमें महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवन स्वयंभुके दो सम्पूर्ण ऐसा कौन था जो उनके काव्य-समुद्रको पार करता ' और संयुक ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं, एक पउमचरिंग' व्याकरणरूप हैं मजबूत कन्धे जिसके, श्रागोंके अंगोंकी (पद्मचरित) या रामायण और दूसरा रिटणेमिचरिउ' उपमा वाले हैं विकट पद जिसके, ऐसे त्रिभ वनस्वयंभु रूप (अरिष्टनेमिचरित) या हरिवंशपुगण । तीसरा ग्रन्थ पंचमिधवल (वृषभ) ने जिन-तीर्थमें काव्यका भार वहन चरिउ (नागकुमारचरित) है जिसका उल्लेख तो किया गया किया" । इससे मालूम होता है कि त्रिभ वन भी वैयाकरण है परन्तु जो अभी तक कही उपलब्ध नही हुश्रा। और पागमादिके ज्ञाता थे।
__ये तीनों ही ग्रन्थ स्वयंभु देवके बनाये हुए हैं और जिस तरह स्वयंभ देव धनंजय और धवलइयाके तीनों को ही उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयंभुने पूरा किया है । आश्रित थे उसी तरह त्रिभ वन बंदइयाके । ऐसा मालूम परन्तु उस तरह नहीं जिस तरह महाकवि बाणकी अधुरी होता है कि ये तीनों ही पाश्रयदाता किसी एक ही राज- कादम्बरीको उनके पुत्रने, वीरसेनकी अपूर्ण जयधवला मान्य या धनी कुलके थे-धनंजयके उत्तराधिकारी टीकाको उनके शिष्य जिनमेनने और जिनमेनके श्रादि पुराण (संभवत: पुत्र) धवलइया और धवलइयाके उत्तराधिकारी को उनके शिष्य गुणभद्रगने पूरा किया था। पिता या गुरुकी बंदइया। एकके देहान्त होनेपर दूसरेके और दूसरेके बाद अधूरी रचनाअोके पुत्र या शिष्यद्वारा पूरे किये जानेके अनेक तीसरेके आश्रयमे ये आये होंगे।
उदाहरण हैं, परन्तु यह उदाहरण उन सबसे निराला है। बन्दइयाके प्रथम पुत्र गोविन्दका भी त्रिभु वन स्वयंभु कविराज स्वयंभुदेवने तो अपनी समझसे ये ग्रन्थ पूरे ही ने उल्लेख किया है जिसके वात्सल्य भावसे पउमचरियके शेष रचे थे परन्तु उनके पुत्र त्रिभुवन स्वयभुको उनमे कुछ के सात सर्ग रचे गये ।
८-६ ये दोनो ग्रन्थ भाण्डारकर इस्टिटयूट पृनेमे हैं-नं. बन्दहयाके साथ पउमचरिउके अन्त में त्रिभुवन
११२० श्राफ १८६४-६७ और १११७ श्राफ १८६१स्वयंभ ने नाग और श्रीपाल प्रादि भव्य जनोंको भी श्राशी
६५ । पउमरियकी एक प्रति कृपा करके प्रो० हीगलाल र्वाद दिया है कि उन्हे प्रारोग्य, समृद्धि और शान्ति-सुख
जी जैनने भी मेरे पास भेज दी है जो मागानेरके गोदीका प्राप्त हो ।
के मन्दिर की है। यद्यपि उमके हामियेपर मंवत् १७७५ १-२-३-४ पउमचरि उके अन्तिम अंशके पद्य ३,७,६,१० । लिग्वा हुआ है, परन्तु वह किमी दूसरेके हाथका है। ५ अन्तिम अंशका चौथा पद्य । ६ अन्तिम अंशका प्रति उससे भी पुरानी है । हरिवंशकी एक प्रति बम्बई के १५ नो पद्य ।
ऐ० पन्नालाल सरस्वती-भवनम में है। इस रोखमे उक्त ७ अन्तिम अंशका १६ वो पद्य ।
सब प्रतियोंका उपयोग किया गया है।