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किरण ८-६]
मोक्षमार्गस्य नेतारम
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"देवागम प्रादि मंगलपूर्वक किया गया जो स्तव अर्थात् विद्यानन्दकी उक धारणा प्रकलंकका 'देवागमेत्यादि. जिसमें देशागम नभोयान आदि मंगलसूचक पद विधमान मंगलपुरस्सरस्तव' पद ही कारण हुआ है। और इसी है ऐसा जो स्तव उस देवागमस्तवके विषयभूत परम प्राप्तके लिये उन्होंने इसका सीधा अनुवाद न कर 'शास्त्रावतारगुणातिशयकी परीक्षाको स्वीकार करने वाले ग्रन्थकार ।' रचित स्तुति' जैसे शब्दोंसे किया है। यहाँ देवागमेत्यादि मंगलपुरस्परस्तव' पदमे अष्टशतीके यह एक स्वतंत्र प्रश्न है कि स्वामी समन्तभद्रने मंगलश्लोकमे स्पष्टतया निर्दिष्ट 'देवागमस्तव' ही ग्रहण वस्तुत: 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' लोकपर भाप्तमीमांसा बनाई किया गया है। स्यावाद विद्यालयकी अष्टशतीकी लिखित है या नहीं। यदि बनाई है तो इसका उनके समय पर प्रति 'देवागमेत्यादिमंगलपुरस्सरस्तव' इस पंक्तिके अनन्तर कितना प्रभाव पड़ता है। इसकी विवेचना फिलहाल इस 'देवागमनभायान' यह प्राप्तमीमांसाकी कारिका लिखकर फिर लेखका विषय नही है। 'प्राज्ञाप्रधाना हि.. 'प्रादि अष्टशतीवाश्य लिखा गया मैंने अपने पहिले लेखमें विद्यानन्दके मतका पूज्यहै। अत: 'देवागमेन्यादि' पदको श्लोककी श्राद्य प्रतीकके पादादि प्राचार्योके मतसे समन्वय करनेके लिये प्रोयानारूपमे लिखे जानेकी वोई आशंका नही रहती। अकलंकदेव रम्भकालेमें आये हुये प्रोग्थान पद पर जोर दिया था। देवागम श्रादि पदों को मंगलार्थक मानकर देवागमस्तवको अब भी यदि विद्यानन्दके मतका समन्वय करना है तो मंगलशून्य होनेकी आशंकाका निराकरण कर रहे हैं। जिस विद्यानन्दके सूत्रकार और सूत्र शब्दवो मुख्यार्थक न मान कर प्रकार शंकराचार्यने अपने शांकरभाष्य में 'अथातो ब्रह्माजे.ज्ञासा गौणार्थक मानना होगा और प्रोत्थानारम्भकाले पदके (ब्रह्मस १1१1१) इस बादरायण सत्रमे पाये हुये 'अथ प्रथान शब्दके प्रकाशमें उनके अन्य उल्लेखोंगे देखना शब्दको अधिकारार्थक होते हुए भी उसके श्रवणमा व्रको होगा। मंगलरूप माना है उसी तरह अकलंकदेव यहो देवागमन
आक्षेप-परिहारभोयान श्रादि शब्दों को मंगलार्थक मान रहे हैं। और इसी लिए देवागम इ यादि मंगल शब्द हैं पहिले जिसके ऐसे
अपने इस लेग्वका उपसंहार करनेके पहिले मैं 'अनेस्तवको उन्होंने देवागमस्तव कहा है। शांकरभाष्यकी भामती
कान्त'के लेखमे लिखी गई कुछ अनुपपत्तिके योग्य बातोका टीकाके रचयिता सर्वतन्त्रम्मतन्त्र श्रा० वाचस्पति मगलराब्दी
माक्षेप-परिहारके रूपमे उत्तर देना आवश्यक समझता हूंके श्रवणको मंगलार्थक सिद्ध करने के लिये अन्यनिमित्तमे
पाक्षेप-(अनेकान्त पृ. २२३-२२४) 'ततस्तदारम्भे लोग जल भोकलाकारोबार युकं परापरगुरुपवाहस्याध्यानम्' तस्वार्थश्लोकवार्तिकके इस हैं। उसी तरह यहाँ यद्यपि देवागमनभीयान श्रादि शब्द
वाक्यके 'तदारम्भे' पदसे दशाभ्यायीरूप तत्त्वार्यसूत्रके अन्य प्रयोजनसे अर्थात् शंकाकारकी शंकाकेरूपमें प्रयुक्त
प्रारम्भमें मंगल किये जानेका उल्लेख है। और 'सिद्ध हुये हैं फिर भी वे भगवानके अतिशयोंका वर्णन करने
मुनीन्द्रसंस्तुरये' में मुनीन्द्र (उमास्वाति) के द्वारा संस्तुत वाले होनेसे मंगलरूप हैं ही।
प्राप्तका कथन है। ___इस तरह हमें तो यही मालूम होता है कि प्रा. परिहार-यहो 'तदारम्भे पदमें आये हुये तत् शब्द
का वाच्य तस्वार्थसूत्र न होकर तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक है। इस १ अर्थान्तरप्रयुक्ताव ह्यथशब्दः श्रुत्या मंगल योजना भवति" सन्दर्भ में विद्यानन्द तत्वार्थसूत्रसे लेकर तत्त्वार्यश्लोकवातिक
ब्रह्मसूत्रशाकरभाष्य १०१।१ तकको शास्त्र सिद्ध करते हैं और फिर तत्त्वार्थश्नोकवातिकके २ "अर्थान्तरेषु अानन्तर्यादिपु प्रयुक्तोऽथशब्दः श्रुत्याश्रवण श्रादिमें किये गए 'श्रीवर्धमानमाध्याय' मंगलश्लोकका मात्रेण वणुवीणाध्वनिवत् मंगलं कुर्वन् मङ्गलप्रयोजनो औचित्य 'युक्तं परापरगुरुप्रवाहस्याध्यानम्' अंशसे सिद्ध कर भवति अन्यार्थमानीयमानोदकुम्भदर्शनवत्"-भामती १।१।५ रहे हैं। यहाँ 'प्राध्याय' और 'श्राध्यानम्' पदोंका ध्यानसे
योगमू० र त्य० ॥१॥ प्रमागामी० पृ०॥ विचार करने पर उक्त अर्थकी स्पष्ट प्रतीति हो जाती है।