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अनकान्त
[वर्ष ५
समूह इस बात को ज्ञापित करते हुए प्रतीत होते हैं कि प्रेरणा अवश्य की होगी, कि जैसे इस कल्पकाल में बाहुबलि अब बाहुबलि मानव-समाजके ही प्रेम-पात्र नहीं हैं, वे तो के विजयका इतिहास एक अनूठी घटना है उसी प्रकार जीवमात्रके हितैषी हो गए, इस लिए हरप्रकार के प्राणी उन उनकी मूर्ति भी इतनी अपूर्व हो जो संसार भरको विस्मयके प्रति आत्मीय भाव धारणकर अपना स्नेह व्यक्त करते हैं। सागरमे निमग्न करदे। हुश्रा भी ऐसा ही, महाराज चामुंडराय
ऐसा भी विचार प्राता है कि माधवीलता और सर्प- की मनोकामना शतप्रतिशत पूर्ण हुई । इसीमे सिद्धान्त राज उन पुण्य और पाप वासनाओंके द्योतक हैं, जिनको चक्रवर्ती श्रीनेमिचन्द्राचार्य, अपने गोम्मटसार-कर्मकाण्डमे, बाहुबालीने वीतराग, वीतद्वेष बननेके कारण अपने अन्तः इस मूर्ति के निर्माता चामुण्डराय (गोम्मटराय) को गाशीर्वाद करणसे बाहर निकाल दिया है, अतएव वे बाहर ही देते हुए लिखते हैंविद्यमान रहकर उनका संसर्ग नहीं छोड़ना चाहते हैं।
'जेण विणिम्मिय-पडिमा-बयणं सबट्टसिद्धिदेवहिं । हमारे चित्तमे एक प्रश्न उत्पन्न हुश्रा कि महाराज चामुंडरायने ही यदि भगवानकी मूर्तिका निर्माण करवाया,
__ सव्व-परमोहि-जोगेहिं दिट्ठ मो गोम्मटो जयः॥ यह इतिहासज्ञोंकी मान्यता सत्य है. तब चामंडरायने अथात-जिसके द्वारा निर्मापितकी गई मर्तिक बाहुबलिकी मूर्तिको क्यों पसन्द किया ? वे चाहते. तो मुग्बका मवामिद्धिकदेवो और परमावधि-सर्वावधि श्रादि ब्रह्मा भगवान ऋषभदेव या अन्य तीर्थकर परमदेवकी ज्ञानक धारक योगीन्द्रोने दर्शन किया है वह गोम्मटमूर्ति बनवाकर धर्मकी महिमा प्रकाशित करने के साथ-साथ राजा जयवन्त हो। अपनी पाल्माका भी कल्याण कर सकते थे। आखिर तीर्थ- इस अप्रतिम सौन्दर्य-समन्वित प्रतिमाको देखकर कभी करका पद विशेष महत्वका है, इसे पभी स्वीकार करते हैं तो चित्त चामुण्डरायके महत्व एवं सौभाग्यकी ओर ___तकाल ही इसका समाधान यह सूझ पहा कि-मूर्तिके आकर्षित होता है, कभी उस शिल्पीकी ओर जिसके निर्माण कराने वाला व्यकि महान् सैनिक था, इसीसे मस्तकमे सबसे पहले गोम्मटेश्वरका लोकोत्तर काल्पनिक उसको समरमार्तण्ड, वैरिकुलकालदण्ड श्रादि क्षत्रियोचित चित्र पाया, और जिसने अपनी कलाके द्वारा ऐसी मूर्ति पदोंसे अलंकृत किया जाता था । वह बाहुबलिके समान उस पाषाण पिण्ड में से निकाल दी, जैसी कि आज तक पराक्रम, शक्ति तथा मनोवृत्तिकी प्राप्ति चाहता था। लोगोंके देखने सुननेमे भी अन्यत्र नही पाई। श्राज उस जिस प्रकार बाहुबलिने अपने पराक्रम एवं बाहुबलसे शिल्पीके नामका पता नहीं है, किन्तु अमर कलामयकृति चक्रवर्ती तक को पराजित कर दिया और अन्तमे जिनेश्वरी करके वह वास्तवमे अमर हो गया। उसकी पवित्र कलाके मुद्रा धारणकर कर्मचक्रको निर्मल किया, उसी प्रकार प्रति संपूर्ण विचारक अपनी हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करते चामुंडराय भी अन्यन्त स पुग्नत शत्र को परास्त करके कर्म हैं। वैसे तो अपूर्व कलाकी अन्य वस्तुए भी विश्व में शोंपर विजय प्राप्तिकी कामना करता था। इसीसे बाहु- विख्यात हैं, किन्तु इस मूर्ति निर्माण की कलाको कोई नहीं बलिका श्रादर्श चामुंडरायके लिये अत्यंत आकर्षक था। पाता । कारण? यह पुण्यकला है, इससे मनुष्यके अंतःकरण श्राचार्य विद्यानन्दने कहा है--जो जिसके गुणोंकी
में विषयाशक्तिके भाव नहीं रहने पाते और वह एक प्राप्तिकी आकांक्षा करता है वह उसकी वन्दना करते हुए
अनुपम पवित्र प्रकाशमं अपनी प्रामाको पालोकित पाता देखा जाता है, इसी नियमके अनुसार लौकिक तथा
है। इस प्रकारकी उज्वल तथा जीवनमे निर्मलताकी पुण्य आध्यात्मिक क्षेत्रके सफल सैनिक बाहुबलिके श्रादर्शको
धारा बहाने वाली चमत्कारपूर्ण कलामयकृति और अपना लषय बनाना चामुंडराय जैसे सैनिकके लिए अत्यन्त
कहाँ है ? यहाँ हमें अन्य वस्तुके साथ उपमान-उपमेय-भाव ही उसने शिल्पा का संबन्ध करना असंगत प्रतीत होता है और यह कहना बाहुबलिकी अनुपम मूर्ति बनानेको कहा। मूर्तिकी अलौ- *चामुण्डगयका खाम नाम गोम्मट' होनेसे उनके श्राराध्यदेव किकताको देखकर प्रतीत होता है कि उनने शिल्पीको यह बाहुबलिको 'गोम्मटेश्वर' (गी-मटका ईश्वर) कहते है।