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तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण (लेखक-न्यायाचार्य पं० दरबारीलाल कोठिया )
श्राचार्य उमास्वाति या उमास्वामीका 'तत्वार्थसूत्र' शास्त्रीजीके निर्णयका मुख्य आधार अग्विल जैनसमाजका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है, जिसे तत्त्वार्थाधि
और उमको जाँच गममूत्र, तत्त्वार्थशास्त्र और मोक्षशास्त्र भी कहते हैं । इस सूत्रग्रन्थकी श्रादिमे मूलकारका कोई मंगलाचरण है या कि
पं. महेन्द्रकुमारजी शास्त्रीने, जिन्हें इस लेखमें आगे नही, और यदि है तो वह कौनसा पद-वाक्य है, यह बात
___ 'शास्त्री' पदसे उल्लेखित किया जाय, अपने निर्णयका अर्से से विवादापन्न चली पाती है। कुछ विद्वानोका
मुख्य प्राधार विद्यानन्दकी प्राप्तपरीक्षाके 'श्रीमत्तत्त्वार्थकथन है कि इस ग्रन्थके शुरूमे-'सम्यग्दर्शनज्ञान
शास्त्रातमलिलानधेः' इत्यादि पद्य और अष्टसहस्रीके
'शाम्बावनाग्रचित-स्तुति-गोचगप्तमीमांमितं' इत्यादि चारित्राणि मोक्षमार्गः' इस प्रथमसूत्रसे पहिले--प्राप्तस्तुति
मंगलश्लोकपर रक्खा है। इसीसे श्राप अपने लेखके शुरुमे ही श्रादिके रूपमे--कोई मंगलाचरण नही है, परन्तु दूसरे विद्वानोंका यह स्पष्ट मत है कि इस ग्रन्थकी आदिम
इन पद्योंका उल्लेख करते हुए लिखते हैं :मंगलाचरण-पद्य ज़रूर है और वह निम्न प्रकार है--
___“यह (उपर्युक.) श्लोक सर्वार्थ सिद्धि के मङ्गलश्लोकके मोक्षमार्गस्य नेतारं भत्तारं कर्मभूभृताम ।
रूपमें उपलब्ध है। प्राचार्य विद्यानन्दने अपनी प्राप्तपरीक्षा
इसी श्लोकमे वर्णित प्राप्तस्वरूपके परीक्षण के लिये बनाई जाना विश्वतत्त्वानां वन्दे तदगुणलब्धये ॥११ जिन विद्वानोंकी यह मान्यता है कि तत्त्वार्थसूत्रकी
है। प्राप्तपरीक्षाके अन्तमे स्वय लिखते हैं :श्रादिमे कोई मगलाचरण नहीं है वे इस मंगल पद्यको
श्रीमत्तत्वार्थशास्त्राद्भुतलिलनिधेरिद्धरत्नोद्भवम्य । तत्त्वार्थमनकी टीका 'समिद्धि' का बतलाते हैं. जो प्रात्थानारम्भकाले मकलमलभिदे शास्त्रकारीः कृतं यन।। श्रीपूज्यपाद-रचित है. क्योंकि सर्वार्थमिन्द्विके शुरूमें भी यह स्तोत्रं तीर्थापमानं पृथिनप्रथुपथं स्वामि मीमांसितं तन । मगलश्लोक विना किसी टाका-टिप्पणक पाया जाता है। इस विद्यानंदःम्वशक्त्या कथमपि कथितं मन्यवाक्यार्थसिद्धय मतको पुष्ट करने के लिये हालमे एक लेख श्रीमान न्यायाचार्य अर्थात-जो दीप्तरग्नोंके उद्भवका स्थान है. उस अदभुन प. महेन्द्र कुमार जी शास्त्री काशीका, जैनसिन्द्वान्तभास्कर समुद्र के समान तर गर्थशास्त्रक प्रोन्यानारम्भकाल--उत्पत्ति मे, 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इस शीर्षकके साथ प्रकट हुश्रा है का निमित बताते समय या प्रोत्थान-भृमिका बोधनेके और वह मैमूर राज्यके थास्थान विद्वान् प. शान्तिराजजी प्रारम्भकालमे शास्त्रकारने जो स्तोत्र रचा और जिस स्तोत्रमें शास्त्रीके जैनबोधक' में प्रकाशित किमयं तत्त्वार्थसूत्र- णित प्राप्तकी स्वामी (ममन्तमद्राचार्य) ने मीमांसाकी, ग्रन्थस्य मंगलश्लोक.' इस शीर्षक संस्कृतलेखको लक्ष्य करके उसकी मैं यथाशनि परीक्षा कर रहा है। लिखा गया गया है, जैसा कि लेखके श्रादि-अन्तमे दिये अष्टयहस्रीक मङ्गललाम्मे भी प्राचार्य विद्यानन्द यही हुए दोनो फुटनोटोसे प्रकट है । अस्तु, पं. महेन्द्रकुमारजी बात लिखते हैं :-- शास्त्रीने अपने लेखमे जो युक्तियां दी हैं उनमें कितना बल 'शास्त्रावताररचिनस्तुतिगचगातहै. वे उनके अभिमतको सिद्ध करने के लिये समर्थ हैं याकि मीमांसितं कृतिग्लंक्रियतं मयास्य। नही और उक्त मंगल-पद्य वास्तवमै उमास्वातिकृत है, या अर्थात शास्त्र-तत्त्वार्थशास्त्र के अवतार-अवतरणका. पूज्यपादकृत, इन सब बातोंको स्पष्ट करके बतला देना ही भूमिकाके समय रची गई स्नुतिम वर्णित श्राप्ती मीमाम्म। श्राजके मेरे इस लेखका विषय है।
करने वाले प्राप्तमीमासा नामक ग्रन्थका व्याख्यान दिया