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किरण ६-७]
तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
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करने का प्रयत्न किया है कि विद्यानन्दने उक्त 'सूत्रकार' कारस्य दर्शनस्य, व्यभिचारिणो ज्ञानस्य च व्युदासः शब्दके प्रयोग द्वारा पूज्यपादका ही वहां उल्लेख किया है कृतो भवति ।" और उक्तमंगलश्लोकको पूज्यपादका ही बतलाया है। परन्तु
इसमें वार्तिकगत लक्षणको उक्त सनके साथ संगत शास्त्रीजीका यह सब लिखना, सुझाना और बतलाना
बतलाते हुए जो स्पष्टीकरण किया गया है वह यह है किग़लत है, भ्रममूलक है और भारी ग़लतफ़हमीपर अव
'प्रत्यक्ष ज्ञान कि अक्षके प्रति नियत है-एकमात्र प्रारमाके लम्बित है। नीचे इसीको स्पष्ट करके बतलाया जाता है :
ही माश्रित है-इस लिये प्रत्यक्ष कहनेमे परापेक्षकी___ श्लोकवातिकका जो उदाहरण प्रस्तुत किया गया है उसमे
इन्द्रियाऽनिन्द्रियकी अपेक्षाकी--निवृत्ति हो जाती है, और 'सूत्र' और 'सूत्रकार' शब्द जरूर पाये जाते हैं, परन्तु वे
ज्ञान तथा सम्यक्का अधिकार होनेसे अनाकाररूप दर्शनकी 'राजवातिक' और 'अकलंकदेव' के लिये प्रयुक्त नहीं हुए और विभंगरूप व्यभिचारी ज्ञानकी भी निवृत्ति हो जाती हैं उनका स्पष्ट प्रयोग क्रमश: 'तत्वार्थसूत्र' और उसके है और इस तरह वार्तिकगत तीनों बातोंकी मूमसूत्रके कर्ता उमास्वाति' के लिये हुश्रा है, जिसका खुलासा इस साथ संगति ठीक बैठ जाती है।' प्रकार है
उक्त शंका तथा राजवार्तिकगत समाधानको लेकर 'श्रादो परोक्षम' यह तत्वार्थसूत्र के प्रथम अध्यायका
और अकलंकके न्यायविनिश्चयगत दूसरे भी प्रत्यक्ष-लक्षण ११ वां सूत्र है, जिसमें परोक्षका लक्षण 'श्रादिके दो मति को सामने रखकर और उसे भी सूत्रसंगत बतलाते हुए, और अति-ज्ञान परोक्ष हैं' ऐसा बतलाया है । इसके विद्यानन्दने अपने श्लोकवार्तिकमें जो समाधान प्रस्तुत किया
तर ही 'प्रत्यक्षमन्यत्' यह १२ वां सूत्र है, जिसम है उसीका एक अंश-अगले-पिछले अंशोंको छोडकरप्रमाणके दूसरे भेद प्रत्यक्षका लक्षण 'शेष तीन--अवधि, शास्त्रीजीने अपने उक्त उदाहरणमें उरत किया है। मनः पर्यय और केवल-ज्ञान प्रत्यक्ष हैं' ऐसा प्रतिपादन यहाँ वरपरा समाधानको प्रशिक्षिका को किया है । राजवार्तिककार-कलंकदेवने इसी सूत्रोपात्त करानेके लिये, नीचे दिया जाता हैलक्षणको इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारंसाकार
"ज्ञानग्रहणसम्बन्धात्केवलावधिदर्शने। ग्रहणं प्रत्यक्षम' इस वार्तिकद्वारा प्रतिपादित किया है।
व्युदस्येते प्रमाणाभिसम्बन्धादप्रमाणता ॥२॥ इसपर यह शंका उठाई गई है कि 'इस वार्तिकमें प्रत्यक्षका जो लक्षण किया गया है वह सूत्रके लक्षण के साथ संगत
सम्यगित्यधिकाराच विभंगज्ञानवर्जनं । मालूम नहीं होता । वार्तिकगत प्रत्यक्षके लक्षण इन्द्रिय
प्रत्यक्षमिति शब्दाच परापेक्षानिवर्तनम् ॥ ३ ॥ अनिन्द्रियकी अनपेक्षा, व्यभिचाररहितता और साकार- न ह्यक्षमात्मानमेवाश्रितं परमिन्द्रियमनिन्द्रियं ग्रहण व इन तीन बातोंका उल्लेख है, जो सूत्रोपात्त (सूत्र- वापेक्षते यतः प्रत्यक्षशब्दादेव परापेक्षानिवृत्तिन भवेत। कथित) प्रत्यक्षके लक्षण में नहीं पाई जातीं। अतः सूत्र और तेन्द्रियानिन्द्रियानपंक्षमतीतव्यभिचा साकारग्रहरण'वार्तिकमे विरोध है।' इस शकाका जो समाधान स्वयं मित्येतत् (वातिक) सत्रोपात्तमुक्तं भवति । तत:अवलंकदेवने अपने राजवार्तिकमे किया है वह शंकासहित प्रत्यक्षलक्षणं प्राहुः स्पष्टं साकारमंजसा । इस प्रकार है
द्रव्यपर्यायसामान्यविशेपार्थात्मवेदनम ।। ४॥ "किंगतमेतदियता सत्रेण ? आहोस्विदेवं वक्त- सूत्रकारा इति ज्ञेयमाकलं कावबोधने । व्यमिति, गतं प्रतिपन्नं, कमिति चेदुच्यते--
प्रधानगुणभावेन लक्षणस्याभिधानतः ।। ५॥ अक्षं प्रतिनियतमिति परापेक्षानिवृत्तिः ।। वार्तिक २।। यदा प्रधानभावेन द्रव्यात्मवेदनं प्रत्यक्षलक्षणं अधिकारादनाकार-व्यभिचारव्युदासः ।। वा०३॥ तदा स्पष्टमित्यनेन मनिश्रुतमिन्द्रियानिन्द्रियापेक्षं व्यु
अधिकृतमेतत्ज्ञानं, सम्यक् इति च, ततोऽना- दस्यते, तस्य साकल्येनास्पष्ट वान् । यदा तु गुणभावेन