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अनेकान्त
[वर्ष ५
जाता है। यहाँ 'शास्त्रावतार' शब्द प्राप्तपरीक्षाके गहरा विचार किया है और न उन्हे निद्यानन्दके दूसरे 'प्रोत्थानारम्भकाल' का समानार्थक है । विद्यानन्दके इन वाक्योंकी स्पष्ट रोशनीमे ही पढ़ा है। और इस लिये वे उल्लेखोंमे निम्नलिम्बित बाताका स्पष्ट सूचन होता है- अपनी किसी गलत धारणाके वश उक्त पोंमे प्रयुक्त हुए
१--प्राप्तपरीक्षा और अष्टसहस्री ग्रन्थ 'मोक्षमार्गस्य 'प्रोत्थानारम्भकाल' और 'शास्त्रावताररचितस्तुति' नेतारम्' श्लोकमे वर्णित प्राप्तको परीक्षाके लिये लिये पदांका गलत अर्थ करनेमे प्रवृत्त हुए हैं । 'शास्त्रावतारजारहे हैं।
रचितस्तुति' का सीधा और सरल अर्थ होता है--'शास्त्रके २--इसी श्लोकमें वर्णित प्राप्तकी मीमांसा स्वामी अव
अवतार-रचनारम्भके समय रची गई स्तुति'-अर्थात तत्त्वार्थ समन्तभद्राचार्यने अपनी प्राप्त मीमांसा की है।
शास्त्र (सूत्र) की श्रादिम रचा गया वह मंगल स्तोत्र जिसके
विषयभूत प्राप्तकी स्वामी समन्तभन्द्र ने मीमांसा की है और ३--यह 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक तत्त्वार्थशास्त्रकी
जिस श्रात मीमांसाकी अलंकृत रूपसे असहस्री टीका उत्पत्तिका निमित्त बताते समय या उसकी अवतरणिका
लिखनेकी विद्यानन्द आचार्य अपने ८१ वाक्यमे प्रतिज्ञा कर भूमिका बाधते समय शास्त्रकारने बनाया है।
रहे हैं । स्वयं विद्यानन्द के निम्नवाक्य में भी इसकी पुष्टि होती तीसरी बात से यह स्पष्ट होजाता है कि जिस शास्त्रकार है, जो उनकी श्राप्तपरीक्षाका समाहिमूचक अन्तिम पद्य है ने तत्वार्थशास्त्रकी उत्पत्तिका निमित्त बताया या उसकी और जिसमें 'तत्त्वार्थशास्त्रादी-तत्त्वार्थसूत्रकी श्रादिम-- उत्थानिका-भूमिका या अवतरणिका बांधी, उसी शास्त्रकार इस पदके प्रयोगद्वारा उक्त 'मोक्षमार्गम्य नेतारं' मंगलने उस भूमिकाके प्रारम्भमे इस मङ्गलमय-स्त्रोत्रको रचा श्लोकको तत्वार्थसूत्रका मंगलाचरण सूचित किया गया हैहै । यहाँ यदि यह तत्त्वार्थ शास्त्र-तत्त्वार्थसूत्र है, तो उसकी
इति तत्वार्थशास्त्रादी मुनीन्द्रम्तोत्रगोचरा । उत्पत्तिका निमित्त बताने वाले या भूमिका अवतरणिका
प्रणीताप्तपरोक्षयं कुविवानिवृत्तये ॥ १२४ ॥ बॉधने वाले श्राचार्य पूज्यपाद हैं। इन्होंने सविर्थसिद्धिके
ऐसी हालतमे विद्यानन्द के 'शास्त्राद' और 'शास्त्राप्रारम्भमे ही तत्त्वार्थसूत्रका निमित्त बताया है और उसी
वतार' शब्दोंका जो वाच्य तवार्थसूत्रका प्रारम्भ' है वही भूमिकाके प्रारम्भमे इस जैनवाड़मयके श्रमर र नरूप मङ्गल
वाच्य उनके उस 'प्रात्थानारम्भकाले' पदका भी है, जो श्लोकको रचा है।
प्राप्त परीक्षाके उक्त अन्तिम पद्यसे ठीक पूर्ववर्ती पद्य इस तरह विद्यानन्दके उक्त उल्लेख हमे हम स्पष्ट श्रीमत्तत्त्वार्थशास्त्र में पाया जाता है । ग्रथसंदर्भको परिणामपर पहुचा देते हैं कि उक्त मङ्गलश्लोक प्राचार्य देखते हुए दूसरा कोई भी भिन्न श्रर्थ उसका नहीं हो सकता। पूज्यपादके द्वारा तत्त्वार्थशास्त्रकी भूमिकाको बाधते समय 'उत्थान' शब्दका अर्थ उद्यम (यान) और उद्गम सर्वार्थसिद्धि के मंगलरूपमे रचा गया है।
(उत्पत्ति) भी है। इन दोनोमेसे कोई सा भी अर्थ लेने वस्तुतः यह मंगलश्लोक प्राचार्य पूज्यपादने ही पर 'प्रेन्थानारम्भकाले' पदके अर्थवी संगति 'शास्त्रावतार' बनाया है।"
और 'शास्त्रादी' जैसे पदोके अर्थके साथ ठीक बैठ जाती है, शास्त्रीजीने श्रीविद्यानन्दाचार्यके उक्त दोनों उल्लेखोपर * जेमाकि निम्न कोषवाक्याम प्रकट है :से स्पष्ट सूचनको जो तीसरी बात कही है और उसका पुन. (१) उत्थानमुदगमे तो यु यमे दर्पण र गो . (विश्रलोचन) स्पष्टीकरण करते हुए जो निष्कर्ष निकाला है उसे देखकर बहा (२) उत्थानं उद्यमे तंत्र रूप पस्त के रण । ही आश्चर्य होता है और यह जान पडता है कि शास्त्रीजीने प्राङ्गणोद्गमदपु"" ( मंदिनी ) उक्त मंगलश्लोकके सम्बन्धमें प्राचार्य विद्यानन्दके अभिमत (३) उत्थानं पोरुपे तंत्र मंनिविष्टोद्गमेऽपि च । (अमर) को ठीक तौरसे समझने के लिये पूरा प्रयत्न नहीं किया-न (४) Rise, ougin, effort, uctivity (V. S. तो उन्होंने उक्त दोनों पद्यो के अर्थपर गंभीरताके साथ Apte)