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यद्यपि ऊपर के लेख देशके इतिहासपर कोई भारी प्रकाश नहीं डालते, तथापि ये जैन संघकी दशाका स्पष्ट चित्र खीचते हैं। इनसे विदित होता है कि उनके समय में संघ अनेक गच्छों और शाखाओं में विभक्त था, जिनमें से बहुतसी शाखाएँ अब लुप्त हो गई हैं और कई एक नई बन गई हैं। श्रीयुत मोहनलाल दलीचंद देशाईने "जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास” नामक अपने ग्रंथके विभाग ५, प्रकरण ५ में संघकी छिन्नभिन्नताका विस्तृत वर्णन किया है । ऐसा प्रतीत होता है कि जैनसंघम केंद्रीय सत्ताका
श्री वीर - पञ्चक
ले० पं० हरनाथ द्विवेदी
अनेकान्त
[ वर्ष ५
बिल्कुल अभाव हो गया था। जिस गच्छ या शाम्या का जोर होता वही प्रधान बन जाता । अतः सबमें प्रधान बनने की होड़ सी लगी रहती थी। इस सबका परिणाम यह हुआ कि जो साधु या भट्टारक कुछ बल पकड़ता था, वही अपनी पृथक भक्त मंडली बना लेता था । यही दशा अब तक बराबर चली आ रही है । जैनसंघ किसी ऐसे नेताको अभी तक जन्म नहीं दे सका जो इन भिन्न भिन्न संप्रदायो आम्नायों और टोलोको एक सूत्रमें पिरो सका हो । ऐसे अवतारी पुरुषकी नितान्त आवश्यकता है।
हमें दो वह प्रतिभा श्रीवीर ! जिसकी प्रवर प्रभासे हम हो धीर वीर गंभीर । ज्ञान प्रभाकरका होवे यॉ पावन परम प्रकाश । अंधकार- अज्ञान - शत्रुका होवे शीघ्र विनाश ॥ अहिसाका न हरण हो चीर । हमें दो वह प्रतिभा श्रीवीर ! प्रेम-समीरण वह कर हमको करें प्रमोद-प्रदान । दया-शक्ति-सौरभ से पूरित हो भारत उद्यान ॥ न हो हिंमासे भीषण पीर | हमें दो वह प्रतिभा श्रीवीर ! 'कर्मचन्द मोहन' की मुरलीमं तेरा सन्देश । अविरल गूंज रहा है वो बढ़ा कोश निश्शेष ।।
तुम्ही त्रिभुवनके पावन पीर | हमे दो वह प्रतिभा श्रीवीर ! तेरी अटल अहिंसा-सरगीपर है निर्भर देश । महापुरुष गांधीका भी यह शुचि निरुपम उद्देश || लगादो भारत-तरणी ती । हमें दो वह प्रतिभा श्रीवीर । मानवकी मानवता जब थी पशुतामे उद्भ्रांत । फूंक अहिंसा-शंख-ध्वनिको किया तुम्हींने शान्त ॥ बनाया यह है नोर-क्षीर । हमे दो वह प्रतिभा श्रीवीर !
* ग्रागमे 'महावीर जयन्ती के अवसरपर पठत ।