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अनेकान्त
बनता । गुरुता - लघुता यह पुद्गलका ही परिणाम है । (८) यदि पुद्गलमात्रको स्पर्श-रस- गन्ध-वर्ण इन चार गुणांवाला माना जाय - उसीको मूर्तिक कहा जाय और जीव वर्ण गुण भी न मानकर उसे श्रमूर्तिक स्वीकार किया जाय तो ऐसे मौद्गलिक और भूतिक जीवात्माका पौद्गलिक तथा मूर्तिक कर्मोके साथ बद्ध होकर विकारी होना कैसे बन सकता है ? इस प्रकारके बन्धका कोई भी दृष्टान्त उपलब्ध नहीं है। और इसलिये ऐसा कथन ( अनुमान) श्रनिदर्शन होनेसे ( श्राप्तपरीक्षा की 'ज्ञानशक्तचैव निःशेषकार्योत्पत्तौ प्रभुः किल । सदेश्वर इति ख्यातेऽनुमानमनिदर्शनम्' इस आपत्ति के अनुसार ) श्रग्राह्य ठहरता है - सुवर्ण और पाषाणके अनादि बन्धका जो दृष्टान्त दिया जाता है वह विषम दृष्टान्त है श्रौर एक प्रकारसे सुवर्ण- स्थानीय जीव के पौद्गलिक होने को ही सूचित करता है-यदि ऐसा कहा जाय तो इसपर क्या श्रापत्ति खड़ी होती है ?
[ वर्ष ५
मूर्तिक कर्मोंके साथ बद्ध होकर विकारी होने में कोई बाधा नही आती । वह सजातीय-विजातीय-पुद्गलां का ही बन्ध ठहरता है। यदि ऐसा कहा जाय तो वह क्योंकर श्रापत्ति योग्य हो सकता है ? (१०) रागादिकको 'पौद्गलिक' बतलाया गया है (अन्ये तु रागाद्याः हेयाः पौद्गलिका श्रमी', (पंचाo २-४५७) और रागादिक जीवके श्रशुद्ध परिणाम है— बिना जाव के उनका अस्तित्व नहीं । यदि जीव पौद्गलिक नहीं तो रागादिक पौद्गलिक कैसे सिद्ध हो सकेगे ? रागादिकका अस्तित्व क्या जीवसे अलग सिद्ध किया जा सकता है ? इसके सिवाय पोद् गलिक जीवात्मा कृष्ण-नीलादि लेश्याऍ भी कैसे बन सकती है ? नोट -- सम्पूर्ण प्रश्नो और उनके सम्पूर्ण अवयवोका श्रच्छा समाधानकारक उत्तर विशदरूपसे युक्तिपुरस्सर दिया जाना चाहिये, जिससे इस विषयपर गहरा विचार होकर जिज्ञासाकी तृमि हो सके । प्रस्तुत विषयकी जो बाते ठोक जान पडे, उन्हे निरापद् बतलाते हुए उन की पुष्टि और जो कोई अच्छी बात कही जा सकती श्रथवा युक्ति दी जा सकती हो उसे भी कृपया साथ मे उल्लेखित कर देना चाहिये। इस सब कृपा के लिये मैं बहुत आभारी हूँगा | वीरसेवामन्दिर, सरसावा जि. सहारनपुर
1} जुगलकिशोर मुख्तार
(६) स्पर्श - रस- गन्ध-वर्णमे से कोई भी गुण जिसमे हो उसे मूर्तिक माननेपर ('स्पर्शा रसश्च गन्धश्च वर्णोऽमी मूर्तिसंज्ञकाः' आदि पचाध्यायी २-६) श्रौर जीवको वर्णगुणविशिष्ट स्वीकार करनेपर (जिसका कुछ प्रभास 'शुक्लध्यान' शब्द के प्रयोग से भी मिलता है) जीव भी मूर्तिक ठहरता है और तब मूर्तिक जीवका
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अनेकान्त बहिर्लापिका
संधिः कः पवनस्य, मित्र ! वद ते चेच्छन्दशास्त्रशता । केन स्त्रीपुरुषा भवन्ति वशगा वित्तेश्वराणां क्षितौ ॥ नक्षत्राणि विभान्ति कुत्र े, मनसो हर्दः कुतो योषिताम् । मत्प्रश्नोत्तरमध्यमाक्षरगतं पत्रं सदा वर्द्धताम् ॥
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— धरणीधर शास्त्री काव्यतीर्थ १ पो नं २ धनेन, ३ श्राकाशे, ४ - - कान्ततः ५ मध्याक्षरंनम " श्रनेकान्त”