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किरण ३-४]
वादिराजसरि
स्थापित की। इसका उल्लेख विल्हणने अपने (विक्रमांक- वादिराज की गुरु-शिष्य-परम्परा मटाधीशोकी परम्परा देवचरित' में किया है।१२ कल्याण का नाम इसके थी, जिसमें दान लिया भी जाता था और दिया भी पहले के किसी भी शिलालेख या ताम्रपत्रमें उपलब्ध जाता था । वे स्वयं जैनमन्दिर बनवाते थे, उनका नही हुआ है, अतएव इसके पहले चौलुक्योकी राज- जीर्णोद्धार कराते थे भार अन्य मुनियों के आहार-दान धानी 'कट्टगेरी' में ही रही होगी । इस स्थानमे की भी व्यवस्था करते थे। उनका 'भव्यसहाय' विशेषण चालुक्य विक्रमादित्य (द्वि०) का ई० स० १०६ का भी इमी दानरूप सहायताको ओर संकेत करता है। कनड़ी शिलालेख भी मिला है जिससे उसका चालुक्य इसके सिवाय वे राजाश्रो के दरबारमे उपस्थित होते राज्यके अन्तर्गत होना स्पष्ट होता है। कट्टगा नामकी थे श्रर वहाँ वाद-विवाद करके वादियोंपर विजय कोई नदी उस तरफ नहीं है।
प्राप्त करते थे। मठाधीश
देवमेनरिक दर्शनमारके अनुसार द्राविड़ के
मुनि कक्छ, खेत, वसति (मन्दिर) और वाणिज्य करके पार्श्वनाथचरितकी प्रशस्तिमे वादिराजसूरिने
जीविका करते थे । और शीतल जलसे स्नान करते अपने दादागुरु श्रीपालदेवको 'सिहपुरैकमुख्य' लिखा
थे । मन्दिर बनाने की बात तो उ.पर आ चुकी है, है और न्यायविनिवय-विवरणकी प्रशस्तिमें अपने
रही खत-बारी, सो जब जारी थी तब ६६ हे ती ही आपको भी 'सिंहपुरेश्वर' लिखा है। इन दोनो शब्दों
होगी और श्रानुषङ्गिकरूपमे वाणिज्य भी। इसलिये का अर्थ यही मालूम होता है कि वे सिंहपुर नामक
शायद दर्शनसारमें द्राविड़ संघको जैनभास पहा स्थानक स्वामी थे, अर्थात सिंहपुर उन्हें जागीरमें
गया है। मिला हुआ था और शायद वही पर उनका मठ था। श्रवणवेल्गोलके ४६३ नम्बरके शिलालेखमें जो
कुष्ठरोगकी कथा श०सं०१०४७ का उत्कीर्ण किया हुआ है-वादिराज वादिगजसूरिके विषय में एक चमत्कारकारिणी की ही शिप्यपरम्पराके श्रीपाल विद्यदेवको होयसल- कथा प्रचलित है कि उन्हे बुष्ठरोग हो गया था। एक नरेश विजयवर्द्धन पोयसलदेवके द्वारा जिनमन्दिरोके बार गजाके दरबारमे इसकी चर्चा हुई तो उनके जीर्णोद्धार और ऋपियोको आहार-दानके हेतु शल्य
एक अनन्य भक्तने अपने गरके अपवादकं भयमे झूठ नामक गांवको दानस्वरूप देनेका वणन है और.४६५ ही कह दिया कि "उन्हे के ई रग नही है।' इसपर नम्बर के शिलालेखमें-जो श० सं० ११२२ क बहस छिड़ गई और श्राखिर गजाने कहा कि "मैं के लगभग का उत्कीरण किया हुआ है-लिखा है कि स्वयं इसकी जॉच करूंगा।" भक्त घबड़ाया हुआ गुरु षड्दर्शनके अध्येता श्रीपालदेवके स्वर्गवास होने पर जीके पास गया और बोला "मेरी लाज अब आपके उनके शिष्य वादिराज' (द्वितीय) ने 'परवादिमल्ल ही हाथ है, मैं तो वह आया ।" इसपर गुरुजीने जिनालय' नामका मन्दिर निर्माण कराया और उसके
दिलासा दी पर कहा, "धर्मक प्रसादसे सब ठीक होगा, पूजन तथा मुनियोके आहार-दानके लिये कुछ भमिका चिन्ता मत करो।" इम्क बाद उन्होने कीभावस्तोत्र दान किया।
की रचना की और उसके प्रभावसे उनका कुष्ठ दूर ___ इन मब बातोंसे साफ समझमें आता है कि हो गया। १२ मर्ग २ श्नाक १
एकीभावकी चन्द्रकीर्ति भट्टारककृत संस्कृत टीकामें १३ इस मुनिपरम्पराम वादिगज और श्रीपालदेव नामके कई यह पूरी कथा तो नहीं दी है परन्तु चौथे श्लोककी
श्राचार्य हो गये हैं । ये वादिगज दूसरे हैं। ये गंगनरेश टीका करते हुए लिखा है कि "मेरे अन्तःकरणमें जब राचमल्ल चतुर्थ या सत्यवाक्य के गुरु थे।
आप प्रतिष्ठित हैं तब मेरा यह कुष्ठरोगाकान्त शरीर