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पद्य-कहानी
एक मुनि-भक्त
[ लेखक-श्री 'भगवत्' जैन ]
कोढ फूट निकला था तनमे, गिरता था श्रामिष गलगल! गुरु का नन नीरोग नहीं है, देग्वेगा नृप-गर्वीला ! इतनी थी दुर्गन्ध कि जिसमे, पूरित था सारा जंगल !! निश्चय ही तब हो जाएगा, उमका बदन लाल-पीला !! सड़े व्रणो मे से बहता था-रक्त, पसेव, पीव क्षण-क्षण! मुझे न अपने प्राणो का भय, चाहे जब उनको ले ले! इन सब के अतिरिक्त और था-दुष्ट मक्खियों का पीइन !! फिक मुझे है, मेरे कारण मुनि-नन कष्ट नही झेले !! उफ़! कितनी पीटा थी फिर भी थे प्रमन्न-मन योगीश्वर ! मनि-निन्दाके भयमे मैंने, किया श्रमत्य-चन व्यवहार! मोच रहे थे 'मझको क्या है, मैं हैं वह हूँ अजर-अमर !!' लेकिन अब मनि-मंकट का लगता है मुझको पाप-अपार !!' धर्म-क्रियायोमे सतर्क थे, योग-माधनामे तत्पर ! घबराई 'मनि-भक्त'----"टकी; भागा वह असहाय वहाँ ! शारीरिक-रोगों पर उनकी, पडती फिर किस तरह नजर? दुखिया, दुग्वको भूल, शान्तिमय पाते हैं मन्नरोप जहाँ !!
x x x x अस्ताचल की श्रोर ना रहा था उदाम-मुग्यसे दिनकर ! जलने वालों की दुनिया में, यमी नही है रही कमी! हल-बाइक भी लौट रहे थे, ले-लेकर हल अपने घर !! कुछ दुष्टोने महागज मे, कहदी यह दास्तान सभी!! सेठ चला-विव्हल-मा, घवगया-मा योगीश्वरके पास ! बोले ना-काढ़ी गुरु हैं क्या', मेठ मामने हुए जभी! बोला मविनय भक्तिपूर्ण, लेकर ठंडी-मी एक उमाम !! मनमे भीरु, मशंक बाणकवर, दृढ होकर बोले फिर भी !! गुरुने पहले ही मोचा--'यो अाज सेठ जी इतने वक्त'मिथ्या-भाषी है वह मानव, जिमने दिया घृणित-संबाद ! पाए हैं', अवश्य है कारण, रह न मकेगा जो अव्यक्त !!' निश्चय बुरी भावना द्वारा, खड़ा किया है नया-विपाद !! 'योगीश्वर ! मैं मन्ध्या को, इमलिये श्राज फिर श्राया हूँ ! गुरु का तन तो परम दीप्तिमय, जिममे नही वामना-श्राग! एक धर्म-संकटका मैं संबाद माथमे लाया हूँ !! भाग्यवान वह हृदय, पनाता मेवा का जिममे अनुराग !!' कल नरेश दर्शनका मिस ले, अाएँगे करने अपमान ! एक मभामद बोल उठा नब, उसी समय अवसर पाकर !- अविनय दोनेके पहले ही, श्रतः कीजिए प्रभु ! प्रस्थान !!" 'सत्य-भूट का निर्णय खुद ही, कर न लीजिएगा जाकर !!' बोले वादिराज-गुरु-'शाबिर यह मब क्या है, समझायो ! बोले-'ठीक, स्वयं दी कल इम, सत्य- झूठ को परखेगे! जो कुछ हुशा उसे थिरता से, धीरे-धीरे कह जायो !!" झूठ बोलने वाले की हिम्मत कितनी है ?-देखेंगे !!' x x x x धन-कुबेर तब मौन, सोचमे डूबे, अपने घर अाए! सुनकर बोले मुनि नायक तब,-'भक्त !न इतना घबरायो ! एक मानमिक व्यथा, एक चिन्ता का बोझ साथ लाए !! होने दो प्रभात, तुम निर्भय होकर अपने घर जायो !!" लगे खोजने बैठ सदनमे, विकट समस्याओं का हल !- मेठ निरुत्तर, खड़े रहे, जैसे लकवे ने ही मारे ! भूख-प्यास भूले बैठे हैं, हृदय होरहा है चंचल !!- बरम पड़े हों आममानमे या मस्तक पर अंगारे !! 'सौ-सौ टुकड़े हो सकते हो, तो वह बेशक हो जाएँ! योगिराज मुमका कर बोले-'चिन्तायो को ठुकगो ! 'गुरु कोढ़ी हैं !' निंद्य-शब्द यह कैसे जिह्वा पर श्राएँ ? प्रभु का लेते हुए नाम तुम, हर्षित दो वापम जाअो !!" मुनि-निन्दाके महापाप को, किस प्रकार मैं अपनानू ? लौटे सेट अभय होकर पर, थी मनमे फिर भी हलचल !जिनकी स्तुति करता आया, क्या उनकी निन्दा कर डालूँ? 'मुझे अभय कर देनेसे ही, क्या बाधा जाएगी टल ?