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शत्रचूडामा और उसकीकियां
किरण ३-४ |
त्रिषया मंग दोषोयं त्वयैव विषयी कृतः । साप्रतं वा विपयेमुचात्मन विपये स्पृहाम्॥६६॥ हे भ्रमन् विषयोंसे नेकपाम
तूने ही अनुभव कर लिया है। अब तो विपके समान विषयों में लालमाका त्याग कर | महाराज यह भी विचारते है
हे आत्मन् ' यह सब सामग्री तेरे द्वारा पूर्वम भोगी जा चुकी है। इस कारण से ही उच्छिम (जठे) राज्य का त्याग करदे। इस प्राणी के भव तो अनंत होते है ।'
वे यह भी चितन करने है-
अवश्यं यदि नश्यति स्थित्वापि विपयाचिग्म । स्वयं तथाहि स्थान मुक्तिः मंविग्न्यथा ॥६८॥ यदि बहुत समय तक ठहरनेके अनंतर भी विषय विनाशको प्राप्त होते हैं, तब तो उनको स्वयं छोड़ देना चाहिये | इसमे श्रामाकी दुःखोंसे मुक्ति हो जायगी । afari नष्ट होकर स्वयं छोड़ दिया, तो
संसार ही रहेगा ।
त्यागके समर्थन ग्रंथकार एक बड़ी अपूर्व तथा गंभीर बान लिखते है—
त्यज्यते रज्यमानेन राज्येनान्येन वा जनः । भायते यचमानेन तस्यागस्तु विवेकिनाम ॥ ६६ ॥ जिम राज्य के प्रति यह प्राणी श्रमति धारण करता है उसमे तो यह जीव छोड दिया जाता है, किन्तु जिन राज्यादिक पदार्थोंका यह त्याग करता है, वे विभूतियां इस की सेवा किया करती है। इससे विवेकी पुरुषोको त्याग करना चाहिये ।
इस विषयका खुलासा छायाके उदाहरणमे भली प्रकार हो जाता है । जब मनुष्य अपनी छायाको पकड़ने जाता है तो वह उसमें दूर भागती है, किन्तु वह जब उस खायाको छोड़ कर जाना है, तब वही छाया इसका पीछा करती है ।
हमारी प्राणी जिन विभूतियाँकी दिन-रात कामना करने फिरने में वे उनको नहीं प्राप्त होती है, किन्तु तीर्थंकर भगवान जब राज्यावस्थाकी अनुपम तथा श्रमूल्य विभूतिका त्याग कर ईनेश्वरी दीक्षा लेते हैं, तो वही विभूति अत्यंत समुन्नत होक उनके चरणोंकी श्राराधना करती है, यद्यपि वे उस समरयाकी विलोकातिशायिनी विभूतिसे
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भी चार गुण ऊंचे रहते है इसमे ज्ञात होता है कि स्थानके द्वारा ही अपूर्व पति दोग है।
इसी भावको हृदयमें रखकर एक कवि लिखता हैभारती फिरनी थी दुनिया जब तलय करते थे हम । अब जो नफान हमने की. वो देवगर की है ।। आत्म-निरीक्षण
ग्रंथकारने धामोहार के लिए ग्राम-निरीक्षण Introspection) को श्रावश्यक बताया है। अन्यदीयमात्मीयमपि दीप प्रपश्यता ।
कः ममः युतः कार्यन चेदपि ।। १८४ ॥ दसरेके दोषोंके समान अपने दोनेवाले पुरुष के समान कौन है यह तो शहित होते हुए भी (एक प्रकार) मुफ है
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विपत्ति और उसका प्रतिकार
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यह प्रवृत्ति ग्राम तौर पर देखो जाती है कि विपतिके थानंपर बडे २ व्यक्ति घबडा जाया करते है, सम्बन्ध ज्ञानी वासुकिहते हैविपदः परिहाराय फिंकल्प नृणाम | पावके नहि पातः स्थान, श्रातप-क्लेश- शान्तये ॥१-३० विपणिके निवारण के लिए मनुष्योको क्या शाक उचित है? मंगा-मित की शान लिए वी नही ता ततो व्यापत्प्रकारं धर्ममेव विनिधितु प्रदीपदीपिते देशेन ह्यस्ति तमसो गतिः ।। १-३१ ।।
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इस कारण सीवनका इलाज धर्मको निश्चय क 1 दीपक के द्वारा प्रकाशित क्षेत्र अँधकारका गमन नही होता । विपदस्तु प्रतीकारो निर्भयत्व न शोषिता ॥ ३- १७॥
'संकट दूर करने उपाय निर्भीकता है, शोक नहीं मृढ पुरुष उपरोक्त सत्यको भूल जाते है इसमें उनका कष्ट दूर नहीं होता।
विपदपति दानां हन्त बाधिका ।
'विचि तथा उसका भय भी मृढ पुरुषोंको पीडा देता है। हमसे अंग्रेजी भाषाके एक कांचने यह लिखा है
Cowards die many a time before their deaths valiant taste of death but once