Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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____श्री अमितगति श्रावकाचार .
ये चारयन्ते चरितं विचित्रं, स्वयं चरन्तो जनमर्चनीयाः। प्राचार्यवर्या विचरन्तु ते मे, प्रमोदमाने हृदयारविंदे ॥३॥
अर्थ-ते आचार्यवर्य कहिये आचार्यनिविर्षे प्रधान आचार्य आनंदका देनेवाला जो मेरा हृदयकमल ता विर्षे विचरहु । कैसे हैं आचार्य, जे नानाप्रकार चरित्रकौं आचरन करते सन्ते लोककौं आचरन करावें हैं याही” पूजनीक हैं।
भावार्थ-वीतरागरूप धर्म कौं आचरण करैं हैं अर दयाल होय औरनिकौं आचरन करावें है तेही वीतराग भावनिके वांछकनि करि पूजनीक हैं अर ते ही ज्ञानानंदके कारन हैं। बहुरि इनतें विपरीत अन्यरागद्वेषभावसहित हैं ते आचार्य नाही ॥३॥
ये षां तपःश्रीरनघा शरीरे, विवेचका चेतसि तत्त्वबुद्धिः। सरस्वती तिष्ठति वक्त्रपद्म,
पुनं तु तेऽध्यापकपुंगवा वः ॥४॥ अर्थ-ते उपाध्यायनिविर्षे प्रधान उपाध्याय, भगवान तुमको पवित्र करह। कैसे हैं उपाध्याय, जिनके शरीरविर्षे पापरहित तपोलक्ष्मी तिष्ठ है, अर जिनके चित्तविर्षे भेदविज्ञान करनेवाली तत्वबुद्धि तिष्ठ है, अर मुखकमलविर्षे सरस्वती कहिये जिनवाणी तिष्ठ है।
भावार्थ-मन वचन कार्यरूप तीनौं योग जिनके निर्मल भये हैं ॥४॥
कषायसेनां प्रतिवन्धिनी ये, निहत्य धीराः समशीलशस्त्रः । सिद्धि विबाधां लघु साधयंते,
ते साधवो मे वितरंतु सिद्धिम् ॥५॥ अर्थ –ते साधु हमारे अर्थि सिद्धि जो मोक्ष ताहि देहु । कैसे हैं ते साधु, जे धीर समशीलरूप शस्रनिकरि सिद्धिकी रोकनेवाली क्रोधादि