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"अपने आप में विश्वास करना ही ईश्वर में विश्वास करना है । जो अपने आप में अविश्वस्त है, दुर्बल है, कायर है, साहसहीन है, वह कहीं आश्रय नहीं पा सकता । स्वर्ग के असंख्य देवता भी मन के लँगड़े को अपने पैरों पर खड़ा नहीं कर सकते।"
आदर्श की परिभाषा करते हुए आप लिखते हैं - "आदर्श वह जो जीवन की गहराई में उतर कर व्यवहार में आचरण का वज्ररूप ग्रहण कर ले।" जो आदर्श केवल सिद्धान्त बना रहता है, जीवन के व्यवहार में नहीं उतरता, उसका होना न होना, बराबर
अश्रद्धा की चर्चा करते हुए आप कहते हैं-.-"श्रद्धाहीन अविश्वासी का मन वह अन्धकूप है, जहाँ साँप, बिच्छू और न मालूम कितने जहरीले कीड़े-मकोड़े पैदा होते रहते हैं।" वास्तव में श्रद्धा वह दीपक है, जो इन सब जहरीले जन्तुओं को भगा देता है । वे सब अश्रद्धा में ही पनपते हैं ।
श्रद्धा का प्रतिपादन करते समय मुनि श्री तर्क को भूलते नहीं ! आप कहते हैं-"तर्कहीन श्रद्धा अज्ञानता के अन्धकूप में डाल देती है और श्रद्धाहीन तर्क अन्तः सारहीन विकल्प तथा प्रतिविकल्पों की मरुभूमि में भटका देता है । अतः श्रद्धा की सीमा तर्क पर और तर्क की सीमा श्रद्धा पर होनी चाहिए। ___मानव अनादिकाल से बाहर के देवी-देवताओं को पूजता आ रहा है । अपने ही अन्दर विराजमान आत्मदेवता की पूजा करना उसने नहीं सीखा । कस्तुरीमृग अपनी ही सुगन्ध को खोजने के लिए जंगलों में भटकता रहता है और थक कर चूर-चूर हो जाता है, किन्तु उसे सुगन्ध का स्रोत नहीं मिलता। इसी प्रकार भोला-मानव मृग भी अपनी आत्मा में निहित शक्ति और सुगन्ध को बाहर खोज रहा है, जंगलों की खाक छानता है, पत्थरों से सिर फोड़ता है, सीढ़ियों में नाक रगड़ता है, फिर भी अतृप्त, का अतृप्त, निराश
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