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बना देते हैं । जीवन का प्रत्येक क्षण महत्त्वपूर्ण है, यदि उसका किसी महत्त्वपूर्ण कार्य में विनियोग किया जाए ।"
लोग यौवन और बुढ़ापे का सम्बन्ध शरीर से मानते हैं । किंतु वास्तव में देखा जाए, तो उनकी यह धारणा गलत है— मन की क्षीणता शरीर की क्षीणता की अपेक्षा अधिक भयंकर होती है । नित्य नव तरंगित रहने वाला उल्लास ही तो यौवन है और वह होता है मन में, शरीर में नहीं ।
पुरुषार्थियों को प्रेरणा देते हुए वे कहते हैं- “यदि तू अपने अन्दर की शक्तियों को जागृत कर ले, तो सारा भूमण्डल तेरे एक कदम की सीमा में है। तू चाहे तो घृणा को प्रेम में, द्वेष को अनुराग में, अन्धकार को प्रकाश में, मृत्यु को जीवन में, किं बहुना नरक को स्वर्ग में बदल सकता है । "
साधना -साधक को ठीक मार्ग पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हुए वे कहते हैं- "परमात्मपद पाना तुम्हारा जन्मसिद्ध अधिकार है । संसार की कोई भी शक्ति ऐसी नहीं, जो तुम्हें अपने इस पवित्र अधिकार से वंचित कर सके । "
श्रद्धा के बिना साधना निष्प्राण है । जितना शिव और शव में अन्तर है, उतना ही अन्तर श्रद्धासहित और श्रद्धारहित साधना में है । पहली शिव है और दूसरी शव । जैन - परम्परा में साधना का प्रारम्भ सम्यक् - श्रद्धा से होता है ।
जिस प्रकार शरीर का जीवन साँस पर अवलम्बित है, साँस चल रही है तो जीवन है और बंद हो गई तो मृत्यु है । इसी प्रकार साधना-जीवन विश्वास पर अबलम्बित है । " विश्वास जीवन है और अविश्वास मृत्यु । विश्वास मानव जीवन में सबसे बड़ी शक्ति है | विश्वासी कभी हारता नहीं, थकता नहीं, गिरता नहीं, मरता नहीं । विश्वास अपने आप में अमर औषधि है ।"
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