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આગમખ્યાત (पा० १८ थी ८५) भां 2 ये छ, नाना 'भागमा પ્રકાશિત થાય છે.
સુજ્ઞ વાચકે માટે ખૂબજ માર્મિક યુક્તિપૂણ આ નિબંધ છે, Y३मी योग्य शते. पायqा वियर SIHY . सं.]
जिस देवद्रव्य का भक्षण या उपयोग करना साधु के लिये भी मना है, तो पीछे दूसरे के लिये क्या कहना ? और इससे ही देवद्रव्य के अंश से बनी हुई वस्ति में भी साधु को रहने से हरदम प्रायश्रित बढ़ता जाता है. देखिये ! हरिभद्रसूरिजी का लेख - ......... : . जिणदव्वंसमणियं ठाणं, जिणहदवभोयण सव्वं ।
साहहिं चइयव्वं जइ तमि वसिन्ज पच्छित्तं ॥१८॥ छल्लहुयं छग्गुरुयं भिन्नमासो य पइ दिणं जाय। कप्पविहाराई वं भणियं निहागयं कप्पे गा१०९॥ ‘याने देवद्रव्य का लेश मात्र भी जिसमें लगा हो वैसे स्थान का या सर्वथा दैवद्रव्य के स्थान का परिभोग साधु को वर्जन करना चाहिये, जो साधु वैसा स्थान नहीं छोड़े तो उस साधु को पहले दिन छ लघु दूसरे दिन छ गुरु, पीछे प्रति दिन भिन्न मास बढ़ते २ यावत् कल्प अवहार 'में कहा हुआ चरम प्रायश्चित्त याने पाराञ्चित प्रायश्चित,जाय तब तक हर दम प्रायश्चित बढ़ता जाता है।
उपर के कथन से साफ हो जाता है कि देवद्रव्य साधु के उपयोग में किसी तरह से भी नहीं आ सकता. कितनेक लोग कहते हैं कि 'संघ'देवाव्य की व्यवस्था पलटा सके या देवद्रव्य संघ के उपयोग में "आ सके. या संघ मिलकर उस देवद्रव्य का दूसरा उपयोग कर सके, तो यह उपर कहे मुजब कहने वाले या वैसा करने वाले संघ से बाहर ही हैं. और वैसे को संघ कहने के लिये शास्रकार साफ २ मना करते हैं देखिये। वह पाठः