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१४-पु. 3
२२५ देवाइ दबभक्खण-तप्परा तह उम्मग्गपक्वकरा। साहु जणाण पओस-कारिणं मा भणह संधं ॥१२०॥ · देवादि द्रव्य को भक्षण करने में तत्पर और उन्मार्ग का पक्ष करने वाले और साधुजन के द्वेषी ऐसे को संघ नहीं कहना ॥
इस उपर के पाठ से साफ माद्यम हो जायगा कि देवद्रव्य साधु साध्वी श्रावक या श्राविका चतुर्विध संघ में से किसी को भी उपयोग में नहीं आ सकता है. इसीसे उपदेशसप्ततिकाकारने सत्य ही कहा है कि "एकत्रैव स्थानके देववित्तम्" याने देवद्रव्य का दूसरे किसी भी कार्य में उपयोग नहीं ले सकते हैं, किन्तु केवल चैत्य के लिये ही उसका उपयोग हो सकता हैं, देवद्रव्य का उपयोग दूसरे में न होवे
और उसकी वृद्धि उपर्युक्त फल की देने वाली है, इसीसे श्री धर्मसंग्रह, - श्राद्धविधि और उपदेशप्रासाद आदि में देवद्रव्य की वृद्धि करना यह एक जरूरी वार्षिक कृत्य दिखाया है । ___ उपके के लेख से देवद्रव्य को बढाना चाहिये. रक्षित रखना और अपने स्वयं भक्षण करना नहीं और दूसरे से होने भी देना नहीं यह बात आप समझ गये होंगे. लेकिन इस जगह पर शङ्का होगी कि एसा भंडार बढने से उसको खाने वाले मिलते हैं, और वे बढ जाते हैं तो बहतर है के उसको बढाना ही नहीं, कि जिससे खाने वाले को दूषित होते. का प्रसङ्ग ही नहीं आवे? लेकिन यह शङ्का अज्ञानता की ही है, क्योंकि धर्म प्रगट करने से निन्हव और धर्म के अवर्णवादी उत्पन्न होते हैं और अनन्त संसारी बनते हैं इससे क्या तीर्थंकर भगवान को धर्म प्रगट नहीं करना ?
इसी तरह साधु होने से मिथ्यात्वी लोग कर्म बांधते हैं तो क्या साधु नहीं होना ? मन्दिर बनवाने से और प्रतिमा कराने से ही मिथ्यात्वीयों को कर्म बन्धन होता है तो क्या परिणाम ? डूब मरे इससे तैरने की चाहना वाले को तैरने का साधन छोड देना कभी भी मुनासिब नहीं है, इस रीति से
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