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२३३. लेकिन दूसरी गाथा में भी साफ साफ फर्माते हैं कि भगवान् का निष्लकर बिम्ब जो इधर स्थापन किया है, उसको देखकर कई भव्य जीव प्रतिवषोः पायेंगे और फिर धर्म करेंगे।" ___ अब सोचिये ! कि सम्यक्व पाना, धर्म करना यह रुब चैत्य प्रतिमादि से होवे तो प्रवचन की उन्नति और ज्ञान दर्शन की प्रभावना हुई कि नहीं? यह बात पूर्वधरों ने भी कही हुई है ऐसा श्रीमान हरिभद्र सूरिजी स्तवपरिज्ञा द्वारा फर्माते हैं फिर भी श्रीमान हरिभद्रसरिजी क्या लिखते हैं देखिए
चेइहरेण केइ पसंतरूवेण केइ बिंबेण ।
पूयाइसया अण्णे अण्णे बुझंति उवएसा ॥८॥ ... " कई भव्य जीव चैत्य देखने से प्रतिबोध पाते हैं, कई भव्य जीव भगवान् के शान्तरूप से प्रतिबोध पाते हैं, कई भव्य जीव अच्छी पूजा देखकर प्रतिबोध पाते हैं और कई भव्य जीव उपदेश से याने वहां परआये हुए साधु महाराज के व्याख्यान से प्रतिबोध पाते हैं। - इस तरहसे शासन की वृद्धि और ज्ञान-दर्शन की प्रभावना खुद ही आचार्य महाराज दिखा रहे हैं, तो फिर देवद्रव्य-भक्षकपना को बुद्धि करना भव्य जीव के लिये लाजिम कैसे होवे । ... खुद हरिभद्रसरिजी सम्बोधप्रकरण में फरमाते हैं कि "आदान (आवक ) आदि से आया हुआ द्रव्य जिनेश्वर महाराज के शरीर में ही लगाना कौर अक्षत, फल, बलि, वस्त्रादि का द्रव्य जिन मन्दिर के लिये लगाना और ऋद्धि युक्त से सम्मत ( आदेश वाले ) श्रावकों ने या अपने जिन भक्ति निमित्त जो द्रव्य आचरित है, वह मन्दिर मूर्ति दोनों में लगाना।" ____ इस लेख से समझना चाहिये कि जिनेश्वर महाराज की भक्ति के निमित्त होती हुई बोली का द्रव्य दूसरे किसी में भी नहीं लग सकता है।
इस लेख का उपसंहार करते प्रिय वाचकों को यह ख्याल दिलाना जरूरी है कि इस लेख से कितनेक भोले वाचको का दिल दुखित तो होगा