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આગખજયાત लेकिन देवद्रव्य को बचाने के लिये हमको यह लेख लिखना जरूर ही था। व्यवहार और वृहत्कल्प भाष्यकार और टीकाकारों ने साफ २ दिखाया है कि श्रमणसंघ को देवद्रव्य का नाश बचाने के लिये राजादेश से निकाल देवे, वैसा मौका होवे तब भी पीछे हटना नहीं। देखिये ! यह पाठ
वायपरायण कुविओ चेइयतद्दव्य संजई गहणे।। पुन्वुत्ताण चउण्हवि कजाण हवेज अण्णयरो ॥१५॥
वादे कस्यापि राजवल्लभवादिनः पराजयेन नृपतिः कुपितः, अथवा चैत्यम् जिनायतनं किमपि तेनावष्टब्धं स्यात् , ततस्तन्मोचने क्रुद्धो भवेत्, अथवा तद्व्यस्य-चैत्यद्रव्यस्य, संयत्या वा ग्रहणं राज्ञा कृतं तन्मोचने वा कुपितः । (२-४-१६६ । ३-२-२४८)
इस सूत्र के लेखसे देवद्रव्य को बचाने की जरूरी फर्ज समझकर ही हमने यह लिखा है, और ऐसे देवद्रव्य के विनाश के प्रसङ्ग में जो बचाने का उपाय सोचे वैसे ही साधु को भाष्यकार ने मन्त्रिपर्षद् में गिना है, देखिये यह पाठ
तं पुण चेइयणासे तहव्वविणासणे ॥३९१॥
तरपुनः इटङ्गनादितं() कार्य चैत्यविनाशो-लोकोत्तर भवन-प्रतिमा विनाशः तद्र्व्य विनाशनं-चैत्यद्रव्य विनाशनम् ...... इटङ्गनादिताविधि समनुभूतः मन्त्रिपर्षद्
" याने चैत्य और चैत्यद्रव्य के नाश को इटङ्गनादित (१) कार्य गिन कर उसका उद्धार करने वाले को बडी पर्षद् में गिना हैं।
इस लेख से चैत्य द्रव्य का रक्षण कितना जरूरी है। यह स्पष्ट होता है और इसीसे हमने यह लेख लिखा है।
जिनस्य मा कार्पुरिहोपभोगम् , द्रव्यस्य केऽपी त्यवगत्य शास्त्रम् । लेखोऽयमुद्भावित आप्तवाक्या, नन्देन मोदान्मुनिना यथाऽहम् ॥१॥
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