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देवद्रव्य के उपर सागरशेठ का दृष्टान्त ... साकेतपुर नगर में सागर नाम का सेठ रहता था, बडा धमिष्ठं था, उसको धर्मिष्ठ जानकर लोगो ने मन्दिर का काम उसे सोपा और कहा सुथार-सीलावट वगैरा को तनखा देना वगैरा सब काम आप ही करना । सेठ मन्दिर का काम करते रहे । मन्दिर में सलावट मजदूर वगैरा काम करते थे। लोभ के वश होकर सेठ बजार से धीरत, तेल, गोल वगैरा समान लाकर सिलावट मजदूरों को देने लगे। उसमें साढ़े बारा रुपये (एक हजार काकणी) का मुनाफा अपने घर में रहा, अन्त में आलोचना प्रायश्चित किये विना मृत्यु पा करके अण्डगोलीक मनुष्य हुवा, वहां रत्न निकालने वालों ने छ महिने तक घण्टी में पीसा, अत्यन्त दुःख पाकर मरण के शरण होकर तीसरी नरक में गया, वहां से निकल कर पांचसो धनुष्य की काया वाला मच्छ हुवा, वहां मम्बेछने पकर कर तमाम अङ्ग को काटा, वहां से चौथी नरक में गया, इस तरह से एक दो भव के अन्तर सातों नरक में उत्पन्न हुआ।
इसके बाद हजार हजार वक्त अनुक्रम से मूंड़, मेढ़ा, सीयाल, बिलाड़ा, उंदर, नोलीया, कनगे-टीया, घरोली, सर्प, बलद.ऊँट और हाथी इसीतरह से कृमि, शीप, जरोख, कीट, वीछी, पतंगीया, तथा पृथवी, जल, पवन और वनस्पतिमें उत्पन्न होकर उसमें उलटे क्रम से लाखो भव किये।
बाद बहुत से कर्म क्षय होने से वसन्तपुर में कोटीयाधि पति वसुदत्तवसुमती के वहां पुत्रपने उत्पन्न हुवा, उसके गर्भ में आते ही वसुदत्त का तमाम द्रव्य नष्ट हो गया, जन्मते ही पिता वसुदत्त मर गया पांच वर्षे का होते माता भी मर गई इससे लोकोने निष्पुण्यक (पुण्य विनाका) नाम रख दिया, रंक की माफक मोटा हुवा, एक वक उसका मामा स्नेह से अपने घर ले गया उसी दिन उसके घर में चोरों ने चोरी की। इस तरह से जहां जहां रहता है उसके वहां अग्नी चोर वगैरा का उपद्रव होता है वहांसे