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भूमिका
लगभग चार सौ वर्ष पश्चात् हुई हैं। अत: उनके द्वारा रचित नियुक्ति में इनका उल्लेख होना सम्भव नहीं है। वैसे मेरी दृष्टि में बोटिक मत की उत्पत्ति का कथन नियुक्तिकार का नहीं है- नियुक्ति में सात निह्नवों का ही उल्लेख है। निह्नवों के काल एवं स्थान सम्बन्धी गाथाएँ भाष्य की गाथाएँ हैं- जो बाद में नियुक्ति में मिल गई हैं। किन्तु नियुक्तियों में सात निह्नवों का उल्लेख होना भी इस बात का प्रमाण है कि नियुक्तियाँ प्राचीनगोत्रीय पूर्वधर भद्रबाहु की कृतियाँ नहीं हैं।
८. सूत्रकृताङ्गनियुक्ति (गाथा १४६) में द्रव्य-निक्षेप के सम्बन्ध में एकभविक, बद्धायुष्य और अभिमुखित नाम-गोत्र- ऐसे तीन आदेशों का उल्लेख हुआ है।४७ ये विभिन्न मान्यताएँ भद्रबाहु के काफी पश्चात् आर्य सुहस्ति, आर्य मंक्षु आदि परवर्ती आचार्यों के काल में निर्मित हुई हैं। अत: इन मान्यताओं के उल्लेख से भी नियुक्तियों के कर्ता चतुर्दश पूर्वधर प्राचीनगोत्रीय भद्रबाहु हैं, यह मानने में बाधा आती है।
मुनिश्री पुण्यविजय जी ने उत्तराध्ययन के टीकाकार शान्त्याचार्य, जो नियुक्तिकार के रूप में चतुर्दश पूर्वधर भद्रबाहु को मानते हैं, की इस मान्यता का भी उल्लेख किया है कि नियुक्तिकार त्रिकालज्ञानी हैं। अत: उनके द्वारा परवर्ती घटनाओं का उल्लेख होना असम्भव नहीं है।४८ मुनि पुण्यविजय जी कहते हैं कि हम शान्त्याचार्य की यह बात स्वीकार कर भी लें, तो भी नियुक्तियों में वज्रस्वामी को नामपूर्वक नमस्कार आदि, किसी भी दृष्टि से युक्तिसङ्गत नहीं कहा जा सकता। वे लिखते हैं कि यदि उपर्युक्त घटनाएँ घटित होने के पूर्व ही नियुक्तियों में उल्लिखित कर दी गयीं हों तो भी अमुक मान्यता अमुक पुरुष द्वारा स्थापित हुई यह कैसे कहा जा सकता है।४९
पुन: जिन दस आगम ग्रन्थों पर नियुक्ति लिखने का उल्लेख आवश्यक नियुक्ति में है, उससे यह स्पष्ट है कि भद्रबाहु के समय आचाराङ्ग, सूत्रकृताङ्ग आदि अतिविस्तृत एवं परिपूर्ण थे। ऐसी स्थिति में उन आगमों पर लिखी गयी नियुक्ति भी अतिविशाल एवं चारों अनुयोगमय होनी चाहिए। इस सम्बन्ध में भद्रबाहु को नियुक्तिकार मानने वाले विद्वानों का तर्क है कि नियुक्तिकार भद्रबाहु ही थे और उनके द्वारा रचित नियुक्तियाँ भी रचना के समय अतिविशाल थीं। कालान्तर में स्थविर आर्यरक्षित ने अपने शिष्य पुष्यमित्र की विस्मृति एवं भविष्य में होने वाले शिष्यों की मन्द बुद्धि को ध्यान में रखकर आगमों के अनुयोगों की भाँति नियुक्तियों को भी व्यवस्थित एवं संक्षिप्त किया। इसके प्रत्युत्तर में मुनि श्री पुण्यविजयजी ने दो तर्क प्रस्तुत किये हैं- प्रथम, आर्यरक्षित द्वारा अनुयोगों को पृथक् करना उल्लिखित है, किन्तु नियुक्तियों को व्यवस्थित करने का एक भी उल्लेख नहीं है। स्कन्दिल