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भूमिका
३. नैमित्तिक भद्रबाह (छठीं सदी उत्तरार्द्ध) कृत नियुक्तियों में गुणस्थान की धारणा अवश्य ही पाई जाती क्योंकि छठीं सदी के उत्तरार्द्ध तक गुणस्थान का उल्लेख मिलता है किन्तु जहाँ तक मुझे ज्ञात है नियुक्तियों में गुणस्थान सम्बन्धी अवधारणा का कहीं भी उल्लेख नहीं है। आवश्यकनियुक्ति की जिन दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नामों का उल्लेख मिलता है,६७ वे मूलत: नियुक्ति गाथाएँ नहीं हैं। आवश्यक मूल पाठ में चौदह भूतग्रामों (जीव-जातियों) का ही उल्लेख है, गुणस्थानों का नहीं, अत: नियुक्ति तो चौदह भूतग्रामों की ही लिखी गयी। भूतग्रामों के विवरण के बाद दो गाथाओं में चौदह गुणस्थानों के नाम दिये गये हैं यद्यपि यहाँ गुणस्थान शब्द का प्रयोग नहीं है। ये दोनों गाथाएँ प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि हरिभद्र (आठवीं सदी) ने आवश्यकनियुक्ति की टीका में "अधुनामुमैव गुणस्थानद्वारेण दर्शयत्राह संग्रहणिकारः" कहकर इन दोनों गाथाओं को सङ्ग्रहणी गाथा के रूप में उद्धृत किया है।६८ अत: गुणस्थान सिद्धान्त के स्थिर होने के पश्चात् ये सङ्ग्रहणी गाथाएँ नियुक्ति में मिला दी गई हैं। नियुक्तियों में गुणस्थान अवधारणा की अनुपस्थिति इस तथ्य का प्रमाण है कि उनकी रचना तीसरी-चौथी सदी के पूर्व हुई थी। इसका तात्पर्य यह है कि नियुक्तियाँ नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना नहीं हैं।
४. साथ ही आचाराङ्गनियुक्ति में आध्यात्मिक विकास की उन्हीं दस अवस्थाओं का विवेचन है६९ जो सत्त्वार्थसूत्र में प्राप्त हैं और आगे चलकर जिनसे गुणस्थान की अवधारणा विकसित हुई है। तत्त्वार्थसूत्र तथा आचाराङ्गनियुक्ति दोनों विकसित गुणस्थान सिद्धान्त के सम्बन्ध में सर्वथा मौन हैं, जिससे यह फलित होता है कि नियुक्तियों का रचनाकाल तत्त्वार्थसूत्र के सम-सामयिक (अर्थात् विक्रम की तीसरी-चौथी सदी) है। इस प्रकार नियुक्ति छठी शती से उत्तरार्द्ध में होने वाले नैमित्तिक भद्रबाहु की रचना तो किसी स्थिति में नहीं हो सकती।
५. नियुक्ति गाथाओं का नियुक्ति गाथा के रूप में मूलाचार में उल्लेख तथा अस्वाध्याय काल में भी उनके अध्ययन का निर्देश यही सिद्ध करता है कि नियुक्तियों का अस्तित्व मूलाचार की रचना और यापनीय सम्प्रदाय के अस्तित्व में आने के पूर्व का था। निश्चित रूप से ५वीं सदी के अन्त तक यापनीय सम्प्रदाय के अस्तित्व में आ जाने से नियुक्तियाँ ५वीं सदी से पूर्व की रचनायें होनी चाहिएऐसी स्थिति में भी वे नैमित्तिक भद्रबाहु (वि. छठीं सदी उत्तरार्द्ध) की कृति नहीं मानी जा सकती हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द ने भी आवश्यक शब्द की नियुक्ति करते हुए नियमसार गाथा १४२ में नियुक्ति का उल्लेख किया है।७२ आश्चर्य यह है कि यह गाथा मूलाचार के