Book Title: Agam 37 Chhed 04 Dashashrutskandh Sutra Ek Adhyayan
Author(s): Ashok Kumar Singh
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 202
________________ १८५ दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति मूल-छाया-अनुवाद पुव्वाहीयं नासइ, नवं च छातो अपच्चलो घेत्तुं । खमगस्स य पारगए वरिसति असहू व बालाई ॥११७॥ बाले सुत्ते सुई कुडसीसग छत्तए अपच्छिमए । णाणट्ठी तवस्सी अणहियासि अह उत्तरविसेसो ॥११८॥ ॥पञ्जोसमणा कप्पनिजुत्ति सम्मत्ता ।।९।। ।।९।। नवममोहनीयाध्ययनननियुक्तिः।। नाम ठवणा मोहो दव्वे भावे य होति बोधव्यो । ठाणं पुवुद्दिढे पगयं पुण भावठाणेणं ॥११९॥ पूर्वाधीतं नश्यति, नवं च बुभुक्षितः अप्रत्यलः ग्रहीतुम् । क्षमकस्य च पारणया वर्षति असहाः च बालादिः ॥११७॥ बालः सूत्रं शुचिः कुटशीर्षक छत्रेण अपश्चिमेन। ज्ञानार्थी तपस्वी अनध्यासी अथ उत्तरविशेषः ॥११८॥ नामस्थापना मोहो द्रव्ये भावे च भवति बोधव्यः । स्थानं पूर्वोद्दिष्टं प्रकृतं पुनः भावस्थानेन ॥११९॥ क्षुधा को सहन न कर सकने वाले का पूर्व में अध्ययन किया हुआ नष्ट हो जाता है, वह नये विषय को ग्रहण करने में असमर्थ हो जाता है। तपस्वी, व्रत के उपरान्त पारणा करने वाला, बालादि वर्षा होने पर भूख को सहने में असमर्थ हैं।।११७।। यदि ऊन निर्मित (वस्त्र है तो उससे सिर ढककर भ्रमण करते हैं। नहीं तो केश निर्मित, सूत्र निर्मित, ताडपत्र, बांस की बनी हुई सिरत्राण और अन्तत: छत्र से (सिर ढककर) भ्रमण करते हैं। ज्ञानार्थी, तपस्वी और भूख न सहन करने वाले के लिए प्रधान और विशेष रूप से उत्तरकरण कहा गया है।।११८।। मोह, नाम, स्थापना, द्रव्य और भावपूर्वक होता है (यह) जानना चाहिए। (इसका) स्थापना या स्थान निक्षेप की दृष्टि से पूर्व में कथन किया गया है। प्रस्तुत (अध्ययन) में पुनः भावस्थान की दृष्टि से (कथन किया जायगा)।।११९।।

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