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नियुक्ति - संरचना और दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति
सामान्यतः एक मास तक तथा विशेष परिस्थिति होने पर एक मास से कम या अधिक समय एक क्षेत्र में वास करने का नियम है। चातुर्मास क्षेत्र ग्रहण करने की स्वीकारोक्ति करने और न करने के सम्बन्ध में भी कालस्थापना के अन्तर्गत विचार किया गया है । चातुर्मास आरम्भ करने से अधिक पहले, चातुर्मास क्षेत्र ग्रहण की बात स्वीकार करने की स्थिति में किसी प्राकृतिक या मानवीय कारणों से उक्त क्षेत्र - विशेष से साधु के विहार करने पर श्रावकों में उसकी गरिमा की क्षति की सम्भावना है।
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वर्षावास की अवधि ७० दिन, ८० दिन, तीन महीने, चार महीने, पाँच महीने और अधिकतम छः महीने बतायी गयी है। राजा के दुष्ट होने, सर्पभय, श्रमण के रुग्ण हो जाने और स्थण्डिल भूमि अप्राप्य होने पर चातुर्मास काल के मध्य में ही श्रमण द्वारा विहार कल्प्य है। इसीप्रकार अकल्याणकारी परिस्थिति, ऊनोदरी व्रत धारण करने, राजा के दुष्ट होने, वर्षा न रुकने, मार्ग दुर्गम या कीचड़ युक्त होने पर, चातुर्मास समाप्त हो जाने के बाद भी श्रमण द्वारा विलम्ब से विहार किया जा सकता है।
सामान्यतः चातुर्मास स्थल के चारों दिशाओं में ढाई कोस (८ कि०मी०) तक इस प्रकार दोनों तरफ मिलाकर १६ कि०मी० तक क्षेत्र मर्यादा होती है। कारणवश इसका अपवाद हो सकता है। पर्वतादि पर स्थित चातुर्मास स्थल के सन्दर्भ में क्षेत्र की पाँच और छ: दिशायें भी हो सकती हैं। गाँव यदि उपवन आदि के किनारे हो तो एक, दो और तीन दिशाओं में ही क्षेत्र हो सकता है । आहार, विकृति, संस्तारक, पात्र, लोच, सचित्त और अचित्त के त्याग, ग्रहण और धारण की दृष्टि से द्रव्यस्थापना निरूपित है।
ऋतुबद्ध काल की अपेक्षा चातुर्मास में आहार की मात्रा क्रमशः यथासम्भव कम कर देनी चाहिए । विकृति प्रशस्त और अप्रशस्त दो प्रकार की होती है। प्रशस्त विकृति सामान्यतः, जबकि अप्रशस्त विकृति कारण पूर्वक ग्रहण की जानी चाहिए। वर्षावास हेतु नया संस्तारक ग्रहण करना चाहिए। गुरु दूसरों को भी संस्तारक प्रदान करते हैं, अतः तीन संस्तारक ग्रहण कर सकते हैं। उच्चार, प्रस्रवण और श्लेष्म (कफ) हेतु साधुओं को तीन-तीन पात्र ग्रहण करने का विधान है। वर्षावास काल में जिनकल्पियों को नियमित लोच करना आवश्यक है, जबकि स्थविरकल्पियों के लिए केवल एक बार। सचित्त-त्याग के परिप्रेक्ष्य में निर्दिष्ट है कि पूर्वदीक्षित और श्रद्धावान् के अतिरिक्त अन्य को दीक्षित करना वर्जित है । पाँच समितियों के पालन, गुण और दोषों की आलोचना, पाप न करने और पूर्व में किये गये पापों का प्रायश्चित्त करने का उपदेश है।
क्षमापना में कुम्भकार, उदायन-चण्डप्रद्योत और चेट-द्रमक का दृष्टान्त, चारों कषायों के भेद-प्रभेदों का उपमा सहित निर्देश, क्रोध में मरुक (मरुत), मान में अत्यहङ्कारिणी भट्टझ, माया में पाण्डुरार्या, क्रोध में भृत्य द्रमक और लोभ में आर्यमङ्गु का दृष्टान्त निर्दिष्ट है | श्रमणों को संयम में आत्मा योजित करने का उपदेश है । इस अध्ययन