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क्र.सं. गाथा
१८. ८३
१९. ८९
२०. ९२
२१. ९८
२२. १०१
छन्द-दृष्टि से दशाश्रुतस्कन्धनिर्युक्ति : पाठ-निर्धारण
चरण
पू०
पू०
पू०
30
30
२३.
१०४ 30
२४. १०८ 30
२५.
११३पू०
२६. १३० 30
संशोधन
कारणओ > कारणे
संपाइमवहो : > संपातिवहो नेहछेओ > • णेहछेदु
दुरुत्तग्ग > दुरुतग्गो
खिंसणा य> खिंसणाहिं अवलेहणीया किमिराग कद्दम कुसुंभय हलिद्दा> अवलेहणि किमि कद्दम कुसुंभरागे हलिद्दा य अणुत्तीह> अणुयत्तीहिं
पुच्छति य पडिक्कमणे पुव्वभासा उत्थम्मि> पुच्छा तिपडिक्कमणे, पुव्वब्भासा चउत्थंपि
मंगल्लं > तु मंगलं
> मस्से
आधारग्रन्थ गाथा
देही
धात्री
९५
नि०भा०
नि०भा०
नि०भा०
नि०भा० देही
नि०भा० चूर्णा
नि०भा० धात्री
नि०भा०
नि०भा०
नि०भा०
द०चू०
धात्री
गौरी
छाया
देही
उक्त विवरण से स्पष्ट है कि कुछ गाथाओं को, उनमें प्राप्त शब्द- विशेष को समानान्तर गाथाओं के परिप्रेक्ष्य में व्याकरण की दृष्टि से संशोधित कर शुद्ध कर सकते हैं जैसे गाथा सं० १२, ४७, ६३, ८३, ९२, ९८, १०४ और १३० ।
गाथा सं० ५९, ६९, ७८, ८०, ८९, ११३ और १४१ समानान्तर गाथाओं के पाठों के आलोक में और साथ ही साथ प्राकृत भाषा के व्याकरणानुसार वर्तनी संशोधित कर देने पर छन्द की दृष्टि से शुद्ध हो जाती हैं।
गाथा सं० ६३ और ६९ समानान्तर गाथाओं के अनुरूप एक या दो शब्दों का स्थानापन्न समाविष्ट कर देने से छन्द की दृष्टि से निर्दोष हो जाती हैं।
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गाथा सं० ५४ और ५८ में क्रमशः 'काले' और 'मासे' को छन्द-शुद्धि की दृष्टि से जोड़ना आवश्यक है। उक्त दोनों शब्द इन गाथाओं के सभी समानान्तर पाठों में उपलब्ध हैं। गाथा सं० १० और ६६ में 'ण' की वृद्धि आवश्यक है। इन शब्दों को समाविष्ट करना विषय-प्रतिपादन को युक्तिसङ्गत बनाने की दृष्टि से भी आवश्यक है। सम्भव है उक्त गाथाओं में 'कालें', 'मासे' और 'ण' का अभाव मुद्रण या पाण्डुलिपि - लेखक की भूल हो सकती है। गाथा सं० १०१ और १०८ समानान्तर